2122 1212 112/22
जिस्म में पहले जान फूँकता है
बाद-अज़-जाँ अज़ान फूँकता है
सब्र कर शब गुज़र ही जाएगी
क्यों ये अपना मकान फूँकता है
अपनी नफ़रत की आग से कोई
देखो हिंदौस्तान फूँकता है
पास आकर वो गर्म साँसों से
मेरे दिल का जहान फूँकता है
आग तो सर्द हो चुकी कब की
क्यों अबस राखदान फूँकता है
हुक्म से रब के ल'अल मरयम का
देखो मुर्दे में जान फूँकता है
रोज़ आयात पढ़ के क़ुरआँ की
मुझ प इक मह्रबान फूँकता है
"समर कबीर"
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
मुहतरमा अमिता तिवारी जी आदाब, ग़ज़ल की सराहना के लिए आपका आभारी हूँ ।
जनाब अनीस शैख़ जी आदाब, ग़ज़ल की सराहना के लिए आपका आभारी हूँ
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब, ग़ज़ल की सराहना के लिए आपका आभारी हूँ ।
जनाब तेजवीर सिंह जी आदाब, ग़ज़ल की सराहना के लिए आपका आभारी हूँ ।
मुहतरमा रचना भाटिया जी आदाब,ग़ज़ल की सराहना के लिए आपका आभारी हूँ ।
जनाब लक्ष्मण धामी जी आदाब,ग़ज़ल की सराहना के लिए आपका आभारी हूँ ।
जनाब नाहक़ जी आदाब,ग़ज़ल की सराहना के लिए आपका आभारी हूँ ।
जनाब सी.एम. उपाध्याय जी आदाब,ग़ज़ल की सराहना के लिए आपका आभारी हूँ ।
जनाब सुशील सरना जी आदाब,ग़ज़ल की सराहना के लिए आपका आभारी हूँ ।
अपनी नफ़रत की आग से कोई
देखो हिंदौस्तान फूँकता है
जनाब कबीर साब ,
इस में वो सब कह दिया आपने जिसे लिखने में कितने पन्ने लग जाएँ तो भी न लिखा जाए
बहुत बहुत मुबारक
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