जिनको हमने चुनकर भेजा,सत्ता के गलियारों में
उनको लड़ते देखा जैसे, श्वान लड़ें बाज़ारों में
कब क्या कैसे गुल ये खिलाते,कोई जान नहीं पाया
इनके असली रंग हैं दीखते, तीज और त्योहारों में
चोर उच्चके इनके आगे,पानी भरते फ़िरते हैं
इनकी गिनती होती अब तो, बड़े बड़े अय्यारों में
जब-जब भी आवाज़ उठी है,इनके जुल्मों सितमों की
तब-तब मारा काटा फेंका, लाशों को अंगारों में
कहने को आज़ादी है पर,सब के मुँह पर ताले हैं
जुबां जो खोली नाम मिलेगा, अपना भी गद्दारों में
झूठे वादे झूठे इरादे, झूठी तकरीरें इनकी
वोट की खातिर नोट भी ये तो, बंटवाते कतारों में
किसको फुर्सत है जनता के, दू:ख में जो शामिल होगा
अपने अपने अहम में तन के, बैठे सब चौबारों में
.
-प्रदीप देवीशरण भट्ट –
1-5-2016 मौलिक व अप्रकाशित
Comment
जनाब प्रदीप जी आदाब,अच्छी रचना हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
'वोट की खातिर नोट भी ये तो, बंटवाते कतारों में '
इस पंक्ति में क़ाफ़िया काम नहीं कर रहा है,देखियेगा ।
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