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मुझको तेरे रहम से मयस्सर तो क्या नहीं
जिस और खिड़कियां है उधर की हवा नहीं
हमको तो तेरी खोज में बस ये पता चला
तेरा पता बस इतना है तू लापता नहीं
उसने तमाम गीत लिखे औरों के लिए
फिर भी वो मेरे दिल के लिए बेवफा नहीं
यूं तो तमाम लोग तरक्की पसंद है
मैं इश्क से अलग कभी कुछ लिख सका नहीं
वह इसलिए ही जीत के बेहद करीब है
क्या-क्या कुचल गया है कभी सोचता नहीं
सबका गुनाहगार हूं ये मानता हूं पर
मेरा नसीब मेरी कलम ने लिखा नहीं
अच्छे के साथ अच्छा नहीं होता है सलूक
मैं चाहता हूं कह दूं जहां में खुदा नहीं
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
:प्रिय मनोज अच्छे खयालात....
वह इसलिए ही जीत के बेहद करीब है
कितने कुचल गये हैं ये उसको पता नहीं
अच्छों के साथ अच्छा हो ज़रुरी नहीं 'मनोज'
कहने को तो मैं कह दूँ जहाँ में खुदा नहीं
हार्दिक आभार आदरणीय समर कबीर साहब
जनाब मनोज कुमार अहसास जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'मुझको तेरे रहम से मयस्सर तो क्या नहीं '
इस मिसरे में 'रहम' शब्द ग़लत है,सहीह शब्द "रह्म" है और इसका वज़्न 21 होता है,आप यहाँ "करम" शब्द ले सकते हैं ।
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