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शाम को जिस वक़्त खाली हाथ घर जाता हूँ मैं

अपने बच्चों की निगाहों से उतर जाता हूँ मैं
भूख से हूँ बेहाल इतना के चला जाता नहीं
जाना चाह्ता हूँ उधर जाने किधर जाता हूँ मैं
एक ठीया है शहर में हम सब जहाँ होते जमा
ख़ुद को लेकिन रोज़ तन्हा उस डगर पाता हूँ मैं
जो मेरी है वो ही अब हालत शहर की हो रही
आइने में ख़ुद की सूरत देख डर जाता हूँ मैं
आब और सहरा में आँखें फ़र्क़ कर पाती नहीं
रेत के दरिया को भी अब तैरकर जाता हूँ मैं
कितना मुश्किल है जीना सोचकर देखो कभी
इसलिए थोड़ा सा जीता और मर जाता हूँ मैं
अब सहा जाता नहीं ज़ुल्मो-सितम मुझसे ‘प्रदीप’
दो इजाज़त ज़ालिमों का काट सर लाता हूँ मैं
-प्रदीप देवीशरण भट्ट- मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on September 5, 2019 at 6:06pm

कृपया व्हाट्सऐप की बजाए फ़ोन पर सम्पर्क किया करें ।

Comment by प्रदीप देवीशरण भट्ट on September 5, 2019 at 4:08pm

अच्छा सुझाव  देने के लिए शुक्रिया समर जी, 

मैंने आपके व्हट्सप पर इस्लाह के लिए एक रचना भेजी थी। अभी भी प्रतिक्षारत्त हूँ

Comment by Samar kabeer on September 1, 2019 at 2:44pm

जनाब प्रदीप देवीशरण भट्ट जी आदाब,एक बात ये कि रचना के साथ उसकी विधा भी लिख दिया करें ।

ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

'भूख से हूँ बेहाल इतना के चला जाता नहीं
जाना चाह्ता हूँ उधर जाने किधर जाता हूँ मैं'
ये शैर बह्र में नहीं है,यूँ कर सकते हैं:-
'भूख से बेहाल हूँ इतना चला जाता नहीं
ख़ुद पता मुझको नहीं जाने किधर जाता हूँ मैं'
'एक ठीया है शहर में हम सब जहाँ होते जमा
ख़ुद को लेकिन रोज़ तन्हा उस डगर पाता हूँ मैं'
इस शैर में क़ाफ़िया बदल गया है,देखें ।
'जो मेरी है वो ही अब हालत शहर की हो रही
आइने में ख़ुद की सूरत देख डर जाता हूँ मैं'
इस शैर के दोनों मिसरों में रब्त(ताल मेल) नहीं है,देखें ।
'कितना मुश्किल है जीना सोचकर देखो कभी'
इस मिसरे को यूँ कर लें तो गेयता बढ़ जाएगी:-
'किस क़दर मुश्किल है जीना सोच कर देखो कभी'
Comment by TEJ VEER SINGH on August 30, 2019 at 10:43am

हार्दिक बधाई आदरणीय प्रदीप देवीशरण भट्ट जी। बेहतरीन गज़ल।

जो मेरी है वो ही अब हालत शहर की हो रही
आइने में ख़ुद की सूरत देख डर जाता हूँ मैं

कृपया ध्यान दे...

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