कर्ज़ का मर्ज़ होता है कैसा
समझ कभी ना पाया था
जब तक कर्ज में नहीं था डूबा
ऋणकर्ता का मजाक बनाया था
समय बदलते देर ना लगती
अपनी मूर्खताओ की वजह से
मैं भी जब बाल-बाल बंधवाया
तब समझ में आया था ||
माँ कहती थी कर्ज ना लेना
गरीबी में तुम रह लेना
मुँह छोटा ओर पेट बड़ा
कर्ज का होता है बेटा
आसानी से ये नहीं चुकता
अच्छे-अच्छे को ले डूबता
पर आसानी से नहीं चुकता
इतना समझ लेना बेटा ||
भाई-बन्धुओ ने मना किया
बहन का प्रस्ताव भी ठुकराया था
महत्वकांक्षा में अंधा हो मैं
लालच में डुबकी लगाया था
पानी की तरह पैसा बहा मैं
अपने, हर कर्म पर इतराया था
उल्टे सीधे खर्चे कर
कुछ समझ ना पाया था||
एक का भुगतान कर चुका
दूजा घर पर पाता था
ब्याज देता या मूल चुकाता
समझ ना कुछ भी आता था
दिन- प्रतिदिन ऋण बढ़ता जाता
सोच-सोच के मूर्खता पर अपनी
आत्मग्लानि से मैं भर जाता
समझ कुछ ना आता था ||
गिरवी रख दी वस्तुयें सारी
हर काग-जात पर लोन लिया
एक ओर ऋण को कम मैं करता
दूसरी ओर बढ़ जाता था
क्या करूँ कैसे करूँ
छुटकारा पाने को अपने कर्ज से
हर हत कंडे अपनाता था
पर समझ ना कुछ भी आता था
सिर झुकाये बैठा हूँ मैं
कुछ भी ना मेरे पास रहा
बच्चे को कुछ दिला ना पाऊँ
पैसे-पैसे को मोहताज हुआ
अपनी मूर्खता पर आँसू बहाऊ
या हसी उड़ाऊ
समझ ना कुछ आ रहा
किसी चमत्कार की आस, कभी
किस्मत को अपनी कोस रहा||
दिल की धड़कने बढ्ने लग गई
ना खुद पर भी विश्वास रहा
पुजा-भक्ति में डूब के मैं
आशा की किरण को ढूंढ रहा
अपनों का अब साथ भी छूटा
ना ही अब अब कोई दोस्त रहा
कर्ज के दर्द को ब्यान कर मैं
कहानी “फूल” की सुना रहा ||
“मौलिक व अप्रकाशित”
Comment
विजय भाई मेरी रचना को पसंद करने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद
सुन्दर रचना के लिए बधाई, आदरणीय फूल सिंह जी
कबीर साहब जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद की आपने मेरी रचना के लिए थोड़ा सा समय निकाला आपका बहुत बहुत धन्यवाद
जनाब फूल सिंह जी आदाब, सुंदर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें ।
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