नन्हा सा, अल्हड़ सा, वो प्यारा बचपन,
ज़िंदगी की धूप से अछूता बचपन
बचपन के वो दिन कितने अच्छे थे
जब संग सबके हम खेला करते थे
दुखी होते थे एक खिलौने के टूटने पर
और छोटी सी ज़िद्द पूरी होने पर,खुश हो जाया करते थे
हँसता, खिलखिलता वो निराला बचपन
ज़िंदगी की धूप से अछूता बचपन
वो बारिश के मौसम का भीगना याद आता है
वो सर्दी में एक रज़ाई मे लिपटना याद आता है
ज़रा सी बात पर रूठना एकदुसरे से और,
पलभर मे खुद ही मान जाना याद आता हैं
अटूट से बंधन जोड़ता, वो सयाना बचपन
ज़िंदगी की धूप से अछूता बचपन
हर नज़र अजनबी है आज,हर रिश्ता है बेमानी,
फूँक फूँक कर रखना है कदम,ये राहे है अंजानी
भूल हो जाने पेर जो माफ़ किया करते थे,
सर पेर रखकर हाथ जो हौसले दिया करते थे!
वो संग नहीं है अपने अब,खो गया है वो बचपन
ज़िंदगी की धूप से अछूता बचपन
कल की फिक्र मे उम्र गुजारते जा रहे है,
अधूरे सपनो को पाने मे कहीं खोते जा रहे है,
आगे बढने की होड़ मे मासूम मन को कुचलते हुए
खुद को भूलकर बस बड़े होते जा रहे हैं
कभी आवाज़ आती है अंतर्मन से
काश लौट आए एक बार फिर वही हमारा बचपन
नन्हा सा, अल्हड़ सा, वो प्यारा बचपन,
ज़िंदगी की धूप से अछूता बचपन
नन्हा सा, अल्हड़ सा, वो प्यारा बचपन,
Comment
"वसुधा जी " ......, आप की कविता,बचपन की याद ताजा करती दिल की भावनाओं को छू रही है ! बचपन से खूबसूरत और क्या होगा। वैसे पुराने दिनों की याद करने बैठो तो ज्यादा कुछ याद नहीं रह जाता , बस कुछ धुंधली, कुछ स्पष्ट थोड़ी सी यादें ही मन को बहुत बड़ा सुकून दे जाती है ! बचपन को याद दिलाने के लिए आप को बहुत-बहुत धन्यवाद..............
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