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ग़ज़ल में अपने माज़ी के कई लम्हात लाया हूँ,
परेशानी की हालत में इन्हीं से जा लिपटता हूँ.
एक ऐसा रास्ता जो देर तक खाली नहीं रहता,
मैं ऐसे रास्ते पर देर से खामोश बैठा हूँ.
लगी है आग वो घर में बुझाई ही नहीं जाती,
मैं दुनिया भर की कितनी उलझनें सुलझाता रहता हूँ.
गली के मोड़ से छुपकर तमाशा देखने वालो,
वतन का खून हूं मैं सूखकर मिट्टी से चिपका हूँ.
मुझे इससे बड़ी राहत जमाने में भला क्या माँ,
मैं टुकड़ा टुकड़ा हूं फिर भी तुम्हारे दिल का टुकड़ा हूँ.
जुदाई के बहुत पहले ही डरता था जुदाई से,
जुदाई के बहुत दिन बाद भी लेकिन मैं जिंदा हूँ.
ख्यालों में भरी नाक़ामियाँ सोने नहीं देती,
वो मुझसे पूछते हैं इतनी ग़ज़लें कैसे लिखता हूँ.
मुझे ताउम्र अपने होने की सूरत पे रोना है,
किसी के घर का रस्ता हूँ, किसी के घर से गुजरा हूं.
तभी तक आदमी बेबाक रह सकता है दुनिया में,
वो जब तक सोचता है मैं जमाने भर से अच्छा हूँ.
किसी के मरमरी हाथों की सुहबत का नतीजा है,
किसी अहसास को भी देर तक छूने से डरता हूँ.
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
हार्दिक आभार आदरणीय समर कबीर साहब
मैं सदैव आपका बेहद शुक्रगुज़ार रहूंगा
आपका मार्गदर्शन मेरे लिए बहुत बड़ा आशीर्वाद है
कृपा बनाये रखिये सर
जनाब मनोज अहसास जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'ग़ज़ल में अपने माज़ी के कई लम्हात लाया हूँ'
इस मिसरे में 'अपने' की जगह "अपनी" कर लें।
'मैं टुकड़ा टुकड़ा हूं फिर भी तुम्हारे दिल का टुकड़ा हूँ'
इस मिसरे में 'टुकड़ा' शब्द तीन बार खटकता है,मिसरा बदलने का प्रयास करें ।
'ख्यालों में भरी नाक़ामियाँ सोने नहीं देती'
इस मिसरे में 'नाक़ामियाँ' को "नकमियाँ" लिखें ।
'किसी के मरमरी हाथों की सुहबत का नतीजा है,'
इस मिसरे में सहीह शब्द है "मरमरीं" ।
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