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हमारे सारे मिसरे मुख्तलिफ अर्थों में लिपटे हैं,
तुझे अब याद भी करते हैं तो डर कर ही करते हैं.
बहुत मुमकिन है इसमें फिर तुम्हारा ज़िक्र आ जाए,
नज़र में आज लेकिन दर्द सब दुनिया जहां के हैं.
जरा सा ध्यान से आ जाते हैं छोटे से मिसरे में,
मुहब्बत के सभी अफसाने रेशम के दुपट्टे हैं.
कई खुदगर्ज मछुआरों ने कब्जा कर लिया उस पर,
वह दरिया जिसमें अपनी नेकियां हम डाल आते हैं.
जहाँ से लेकर आनी थी तुम्हें दुल्हन चमन वालों,
पता करके तो देखो अब वहाँ के हाल कैसे हैं.
तुम्हारी याद लिखना इतना भी आसान होता जो,
जमाने भर से हम भी कहते हम भी शेर कहते हैं.
बता सकते थे वो भी मन की असली बात दुनिया को,
मगर मुश्किल है उनको अपने रिश्ते भी बचाने हैं.
हमारे वक्त में इतना बड़ा निर्वात पसरा है,
उन्हीं से दूर जाते हैं,उन्हें तक लौट आते हैं.
शिकायत हमसे है सबको तो इसमें क्या गिला क्या शक,
यहां कातिल के चर्चे हैं ,मसीहा पर निशाने हैं.
वो अपनी आबरू का मोल किससे मांगने जाए,
शरीफों की अदालत में बड़ी लंबी कतारें हैं.
तेरे 'अहसास' की हस्ती का है इतना ही सरमाया,
तेरी यादों के टुकड़े हैं,वही दिल में सजाने हैं.
-मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आदरणीय लक्ष्मण धामी मुसाफिर आपका हार्दिक धन्यवाद
आ. भाई मनोज जी, सुन्दर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
हार्दिक आभार आदरणीय सुरेंद्र नाथ सिंह जी सादर
आद0 मनोज अहसास जी सादर अभिवादन। बेहतरीन ग़ज़ल कहि आपने,, बधाई स्वीकार कीजिये। सादर
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