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न पूछिये कि वो कितना सँभल के देखते हैं ।
शरीफ़ लोग मुखौटे बदल के देखते हैं ।।
अज़ीब तिश्नगी है अब खुदा ही खैर करे ।
नियत से आप भी अक्सर फिसल के देखते हैं ।।
पहुँच रही है मुहब्बत की दास्ताँ उन तक ।
हर एक शेर जो मेरी ग़ज़ल के देखते हैं ।।
ज़नाब कुछ तो शरारत नज़र ये करती है ।
यूँ बेसबब ही नहीं वो मचल के देखते हैं ।।
गुलों का रंग इन्हें किस तरह मयस्सर हो ।
ये बागवान तो कलियां मसल के देखते हैं ।।
ज़मीर बेच के जिंदा मिले हैं लोग बहुत ।
तुम्हारे शह्र में जब भी टहल के देखते है ।।
न जाने क्या हुआ जो बेरुख़ी सलामत है ।
हम उनके दिल के जरा पास चल के देखते हैं ।।
ये इश्क़ क्या है बता देंगे तुझको परवाने ।
जो शम्मा के लिए हर शाम जल के देखते हैं ।।
हुआ है हक़ पे बहुत जोर का ये हंगामा ।
गरीब क्यूँ यहाँ सपने महल के देखते हैं ।।
बचाएं दिल को सियासत की साज़िशों से अब ।
ये लीडरान मुहब्बत कुचल के देखते हैं ।।
वही गए हैं बुलंदी तलक यहां यारो ।
जो अपने वक्त के सांचे में ढल के देखते हैं ।।
-नवीन मणि त्रिपाठी मौलिक अप्रकाशित
Comment
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
'नियत से आप भी अक्सर फिसल के देखते हैं'
इस मिसरे में सहीह शब्द है ''नीयत"22, मिसरा बदलने का प्रयास करें ।
आ. भाई नवीन जी, उम्दा गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
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