उसे स्कूल के दिन याद आ रहे हैं,जब क्लास शुरू होने के पहले,टिफिन में और कभी कभी स्कूल छूटने के बाद भी कबड्डी खेलना कितना पसंद था उन्हें। बुढ़िया कबड्डी में दोनों पक्षों की एक एक बूढ़ी गोल यानी गोल खिंचे हुए दायरे में हुआ करती।प्रत्येक बूढ़ी के आगे विरोधी पक्ष के खिलाड़ी होते। बारी बारी से दोनों पक्ष अपनी अपनी बूढ़ी को मुक्त कराने की कोशिश करते,वह सत्ता की प्रतीक होती;रानी भी कह लें।एक पक्ष का कोई खिलाड़ी "कबड्डी कबड्डी...." करते हुए दौड़ता,विपरीत पक्ष के खिलाड़ी भागते कि कहीं वह उन्हें छू न ले।उन्हें खेल से बाहर(आउट) न होना पड़े।पर भागते खिलाड़ी यह जरूर ध्यान में रखते कि उन्हें रगेदते खिलाड़ी की बूढ़ी भागकर अपने पक्ष में न चली जाए ।इसलिए वे अपने पीछे आते खिलाड़ी को इधर उधर भागकर भटकने की कोशिश करते। तय नियम के उलट "कबड्डी कबड्डी...." करता खिलाड़ी अपने आगे भागते खिलाड़ी को लंगी लगाता(पीछे से पैर फंसाता),आगेवाला खिलाड़ी गिरता, "गलत गलत...."चिल्लाता,थोड़ी देर खेल स्थगित रहता,फिर नियम याद दिलाए जाते।फिर "कबड्डी कबड्डी...." का सुर गूंजने लगता। वहीं विपक्ष के खिलाड़ी को रगेदने वाले खिलाड़ी को यह भी ध्यान में रखना होता था कि अपनी सीमा में वापस पहुँचने के पहले उसकी सांस न उखड़ जाए, वरना वह खेल से बाहर हो जायेगा।
खेल देखनेवाले ताली पीटते,"हो हो ....."करते।खिलाड़ी पिटती तालियों पर फिदा थे। कोई "वाह!खूब खूब..."करता तो कोई "भद्द पिटवा रहे सारे...."कहकर अपनी भड़ास निकलता।
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आ. भाई मनन जी, सादर अभिवादन।अच्छी कथा हुई है । हार्दिक बधाई।
आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय समर जी,नमन।
जनाब मनन कुमार सिंह जी आदाब,अच्छी लघुकथा हुई,बधाई स्वीकार करें ।
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