कैसे दे दी हामी तेरे ज़मीर ने?
कैसे हो पायी इतनी दरिंदगी हावी तुझ पर?
कि चीख पड़ी इंसानियत भी सुन,
और शर्मिंदा हो गई हैवानियत भी देख।
क्या नहीं दहला तेरा अंतर्मन देख उसको छटपटाता?
क्या नहीं काँपी तेरी काया सुन उसकी चीखें?
क्या नहीं रोयी तेरी रूह कर उसे राख़?
क्या नहीं था ख़ौफ रब-ए-जलील का?
कब तक शर्मसार करेगा अपने जन्मदाता को?
कब तक अपमानित करेगा राखी के उस वचन को?
कब तक ज़लील करेगा रिशतों के पवित्र बन्धनों को?
कब तक, आखिर कब तक?
जान और समझ ले तू,
कि ये नाज़ुक और ख़ूबसूरत जिस्म,
अब न सहेंगे तेरा वहशीपन,
वो दिन दूर नहीं कि जब पासा पलट जाएगा।
वह जो उषा की पहली किरण है,
रात का घना अंधेरा बन जाएगी।
वह जो सौम्य-सरल मुस्कान है,
रौद्र रूप धर तांडव रचाएगी।
वह जो प्रेम का विशाल सागर है,
सुनामी बनकर छा जाएगी।
होश में आजा,
अब बस, बहुत हुआ।
हुंकार उठा है स्त्रीत्व और
जाग उठी है मानवता।
माँऐं और अपने ही कर देंगे इंसाफ,
अब न मिलेगी शह तुझे।
मौलिक व् अप्रकाशित।
Comment
जनाब स्वस्तिक जी आदाब,अच्छी कविता लिखी आपने,बधाई स्वीकार करें ।
आ. स्वस्तिक जी, समसामयिक विषय पर सारगर्भित रचना हुई है । हार्दिक बधाई।
आदरणीय सुरेंद्र जी, यह मेरी हिंदी भाषा में द्वितीय किन्तु इस मंच पर प्रथम कविता है। अपनी इस कविता पर आपके द्वारा मिली सकारात्मक टिप्पणी से मुझे प्रोत्साहन प्राप्त हुआ है। हृदय से आपका आभार सर।
आद0 स्वस्तिक जी सादर अभिवादन। बढ़िया समसामयिक विषय को संदर्भित कर भाव पूर्व सृजन किया है आपने। बधाई स्वीकार कीजिये।
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