2×16
अशआर की आंखें खुलती है, जब सारा आलम सोता है।
मेरे कमरे में रात गए तंजीम का मौसम होता है।
तकदीर के हाथों सौंप दिया जब तूने मुझे महबूब मेरे,
मेरी हालत को सुनकर क्यों अब तन्हाई में रोता है।
खुशियों से गम का रिश्ता जग में ऐसा लगता है हमको,
कोई हाथों में रसगुल्लें देकर पीठ में कील चुभोता है।
मैंने तो सदा चाहा है यही इस गम को रिहा कर दूं खुद से,
हर और शिकारी बैठा है और ये पिंजरे का तोता है
उसकी मेहनत का फल उसको जाने क्यों देर से मिलता है,
जो सपनों को आंखों में भर खेतों में पसीना होता है।
गुटखे की महक से उसके पिता के होंठ नहीं थकते हैं कभी
पर एक अदद कॉपी के लिए वो व्याकुल बच्चा रोता है
धो लेते हैं हम भी मन अपना वो खाक हुए जज्बात उठा,
जैसे कोई धोबी गंदे पानी में कपड़े धोता है ।
बच्चे आखिर में आपस में उस दौलत पर लड़ जाते हैं,
जिसकी खातिर इक बाप जमाने भर का कचरा ढोता है।
ऐसे ही नहीं खींच पाए हैं यें दर्द के नक्शे कागज पर ,
'अहसास' की मिट्टी को हमने यादों के फल से जोता है।
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आदरणीय समर कबीर साहब सादर नमस्कार मैं इस गजल पर दोबारा काम करूंगा क्योंकि इसमें कई गलतियां दिख गई हैं श्री सुरेंद्र जी की बात पर पूरा ध्यान देने की कोशिश करूंगा आशीर्वाद बनाए रखें सादर आभार
जनाब मनोज अहसास जी आदाब,लगता है ये ग़ज़ल आपने जल्द बाज़ी में कही है ।
'मेरे कमरे में रात गए तंजीम का मौसम होता है'
इस मिसरे में 'तंजीम' का क्या अर्थ लिया है आपने?
'कोई हाथों में रसगुल्लें देकर पीठ में कील चुभोता है'
इस मिसरे की बह्र चेक करें ।
'उसकी मेहनत का फल उसको जाने क्यों देर से मिलता है,
जो सपनों को आंखों में भर खेतों में पसीना होता है'
इस शैर में तक़ाबुल-ए-रदीफ़' कुल्ली का दोष है ।
'धो लेते हैं हम भी मन अपना वो खाक हुए जज्बात उठा'
इस मिसरे का कथ्य स्पष्ट नहीं है ।
'बच्चे आखिर में आपस में उस दौलत पर लड़ जाते हैं'
इस मिसरे में 'में' शब्द दो बार मिसरे को कमज़ोर कर रहा है ।
'ऐसे ही नहीं खींच पाए हैं यें दर्द के नक्शे कागज पर'
इस मिसरे की लय बाधित है ।
इस बह्र के बारे में पहले भी आपको समझाइश दे चुका हूँ ।
जनाब सुरेन्द्र जी की बात से सहमत हूँ ।
मैं भी प्रयास करूंगा मित्र
आद0 मनोज जी,, समय तो शायद हम सभी के पास नहीं है मित्र। बस इसी भागमभाग में साहित्य रस लेने की महत्वाकांक्षा हमें दुसरो की रचनाओं पर बरबस खीच लाती है। कल्पना कीजिये आपने रचना डाली और कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली,, तो कैसा अनुभव होगा। प्रतिक्रियाएँ हम साहित्यकारों के लिए संजीवनी होती है। अब रही बात योग्य सुयोग्य कि तो मैं भी उस के लायक खुद को नहीं समझता पर आप सबकी रचनाओं पर अपनी समझ के हिसाब से उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिश करता ही रहता हूँ।
उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक शुक्रिया आदरणीय मित्र आपने ठीक कहा मैंने रचना पर प्रतिक्रिया कम ही दे पाता हूं दरअसल मैं थोड़ा सा व्यस्त ज्यादा रहता हूं इसलिए प्रतिक्रिया नहीं दे पाता दूसरी बात यह है कि मैं अभी स्वयं ही सीख रहा हूं तो किसी दूसरे की रचनाओं में कोई त्रुटि बता पाना भी मेरे लिए संभव नहीं है सादर अभिवादन
आद0 मनोज अहसास जी सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल कही आपने,, बधाई स्वीकार कीजिये। एक निवेदन है, समयानुकूल और लोगों की रचनाओं पर भी प्रतिक्रिया दिया करें। सीखने सिखाने को मिलेगा। सादर
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online