2122 2122 2122 212
सब हवाले कर दिया तुझको मसीहा जान कर,
अब कहाँ जायें बता गैरों को अपना मान कर।
मत करो उससे शिकायत अपने घाटे लाभ की,
जिसको तुमने सर चढ़ाया दिल की बातें मान कर।
तेरा उससे प्यार है औरों से नफरत की उपज,
बरसों के रिश्ते भी चल उसके लिए कुर्बान कर।
वक्त का पहिया है ये तो चलना इसका काम है,
आने वाले कल की खातिर आज की पहचान कर।
खुद को उसको सौंपकर निश्चित हुए बैठे हैं हम,
उसको बस इतनी तलब है अपना कल आसान कर।
साँसों की गिनती का भी ले लेगा वो तुमसे हिसाब,
बन गया मालिक जो कहता था मुझे दरबान कर।
आदमी को आदमी के हाथों मरने के लिए,
सो गया आकाश में मालिक भी चादर तानकर।
जल न जाए ये चमन तेरे सितम की आग में,
अपने हाथों को उठाकर अम्न का ऐलान कर।
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आदरणीय समर कबीर साहब सादर नमस्कार हार्दिक आभार सुझाव का सदैव स्वागत एवं मान आपकी सलाह के बिना मेरी ग़ज़ल अधूरी है मैं हृदय से स्वीकार करता हूं सादर आभार
आपका हार्दिक आभार आदरणीय धामी जी
जनाब मनोज अहसास जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'खुद को उसको सौंपकर निश्चित हुए बैठे हैं हम,
उसको बस इतनी तलब है अपना कल आसान कर'
इस शैर का भाव स्पष्ट नहीं है,देखियेगा ।
'आदमी को आदमी के हाथों मरने के लिए'
इस मिसरे को यूँ कर लें:-
आदमी को आदमी के हाथों मरता छोड़ कर'
शब्दों के नीचे नुक़्ते लगाना सीखिए ।
आ. भाई मनोज जी, अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
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