2×16
बेकार सताते हो खुद को बेकार तमाशा करते हो,
जो छुपकर तुमको देख रहा तुम उसको ढूंढा करते हो।
जब पास कोई तस्वीर नहीं, न उसका पता मालूम तुम्हें,
दर दर की ठोकर खाकर बस तकलीफ़ बढ़ाया करते हो।
मिल जाएगा वो है शक इसमें, खो जाओगे तुम ये मुमकिन है
सागर को पाने की जिद में क्यों झील का सौदा करते हो।
ऐसा तो कोई दस्तूर नहीं अजनबियों में कोई बात न हो,
तुमको ही पुकारा है मैंने,पीछे क्या देखा करते हो।
गर मांगने से मिल जाता कुछ ,किस्मत का लिक्खा फिर क्या है
उम्मीद से ज्यादा की चाह में उम्मीद ही तोड़ा करते हो।
जो बिन मांगे ही पा बैठे उसको तो संभाला जा न सका,
घोल दिया सांसों में विष अर पानी को गंदा करते हो।
भूखे बच्चों को देखके तो आंखों में लाज नहीं आती,
और हलवा पूरी के बदले सौ मन्नत मांगा करते हो।
दीवार झुकी हो तो उसके साये में डर भी होता है,
मेरे शोषण की जिद में तुम खुद से ही धोखा करते हो।
ऐसे में अगर वो आ जाये इतना ही कहेगें बस मुझसे,
तुम करके बहाना मेरा ग़ज़ल में मौज उड़ाया करते हो।
ये जगती आंखों की रातें और मायूसी की सर्द सुबह,
मेरी धड़कन कहती है मुझे बस जीवन जाया करते हो।
'अहसास' तो अपने जीने का मकसद ही भुलाकर ज़िंदा है,
हिम्मत से सब कुछ हासिल है क्यों उसको बुलाया करते हो।
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आद0 मनोज कुमार अहसास जी सादर अभिवादन। एक बेहतरीन ग़ज़ल पढ़ने को मिली आपके हवाले से। बधाई। आद0 समर साहब की बातों का संज्ञान लीजियेगा। सादर
बहुत-बहुत शुक्रिया एवं सादर आभार आदरणीय समर कबीर साहब आपने अरकान सुझाए हैं मैं भी अरकान पर काम करना चाहता था लेकिन मैं अरकान भूल गया था इसलिए मुझे लय तो याद थी मैंने उस लय पर ही बांधन की कोशिश की तो मैंने उसको 2 गुना 16 के करीब पाया अब इस ग़ज़ल पर दोबारा काम करूंगा तथा आपके बताएं अरकान पर ही ग़ज़ल को बांधने की कोशिश करूंगा
आपका साथ अमूल्य निधि है
सादर आभार
जनाब मनोज अहसास जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'उम्मीद से ज्यादा की चाह में उम्मीद ही तोड़ा करते हो'
ये मिसरा लय में नहीं है,देखियेगा ।
'ये जगती आंखों की रातें और मायूसी की सर्द सुबह,'
इस मिसरे में 'जगती' शब्द उचित नहीं,सहीह शब्द है "जागती" और 'सुबह' शब्द भी ग़लत है सहीह शब्द है "सुब्ह"21,देखियेगा ।
वैसे इस ग़ज़ल को 221 1222 22, 221 1222 22 पर सेट करते तो अच्छा होता ।
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