राष्ट्र के कर्णधार उठो , मानवता के पहरेदार उठो .
तुमको वतन पुकार रहा , तेरे पौरुष को ललकार रहा.
भारत माँ का उद्धार करो.
भ्रष्टाचार - संहार करो .
नृप ! बैठ तख़्त क्या सोच रहा ? अवमूल्यन में क्या खोज रहा ?
सत्ता की कुछ मर्यादा है , जनतंत्र से कुछ तेरा वादा है.
दृग मूंद लिए सब सपना है.
आँखे खोलो सब अपना है.
यह जग माया का है बाज़ार , जहाँ रिश्तों के कितने प्रकार .
कोई मातु - पिता कोई भाई है , कोई बेटी और जमाई है.
कोई प्यारा सुत बन आया है.
कोई बहन और कोई जाया है.
इस माया को ही कहते जग , यह है मानव - जीवन का सर्ग.
माया से अलग - बिलग होकर , पर जीवित नहीं रह सकता नर.
सृष्टि का मूल्य चुकाना है .
रिश्ते का फ़र्ज़ निभाना है .
पर मात्र स्वार्थ के बंधन में , रिश्तों -नातों के संगम में.
अपने -गैरों के चिंतन में , सुख के विचार को रख मन में.
जो भ्रष्ट आचरण करता है.
वह मनुज स्वयं से लड़ता है.
वह है उस कुते के समान , जो करता निज लहू का ही पान.
हड्डी में दांत गड़ाता है , बदले में रक्त जो पाता है.
वह तप्त रक्त भी है उसका.
वह तृप्त भोज भी है उसका.
सुख पाने की अभिलाषा मैं, उत्तम भविष्य की आशा में.
जो वर्त्तमान को खो देता, बुद्धि - विवेक को खो देता.
वह सबसे बड़ा भिखारी है.
दुर्दिन का ही अधिकारी है.
नभ छूती हुयी अटारी हो, रत्नों से भरी पिटारी हो.
धन-दौलत हो बेशुमार, भरा- पूरा भी हो परिवार.
फिर भी तन्हा ही जाना है.
सब कुछ यहाँ रह जाना है.
मरने पर सब मुँह मोड़ेंगे, निर्जन में संग सब छोड़ेंगे.
न बहन और माता होगी, न पुत्र और कान्ता होगी.
अकेले ही जाना होगा.
कर्मों पर पछताना होगा.
भ्रष्ट आचरण को अपनाना, सहम-सहम कर जीना है.
हो मनुज मनुज से छल करना, निज हाथों से विष पीना है.
जो कुछ भी है सृष्टि का है, मात्र कर्म ही तेरा है.
प्रिय, तुम्हारे कर कमलों में, मानसरोवर मेरा है.
गीतकार- सतीश मापतपुरी
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टिपण्णी और सराहना के लिए धन्यवाद गुरूजी.
भ्रष्ट आचरण को अपनाना, सहम-सहम कर जीना है.
हो मनुज मनुज से छल करना, निज हाथों से विष पीना है.
जो कुछ भी है सृष्टि का है, मात्र कर्म ही तेरा है.
प्रिय, तुम्हारे कर कमलों में, मानसरोवर मेरा है.
vah kya khub likha hain aapne
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