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राम-रावण कथा (पूर्व-पीठिका) - 6 (2)

कल से आगे ................

‘‘घर तुमने किससे क्रय किया था ?’’
‘‘किसी से नहीं !’’
‘‘मतलब ? जब खरीदा नहीं था तो फिर तुम्हारा कैसे हो गया ?’’
‘‘पुरखों से मिला था। हम लोग कई पीढ़ियों से उसी में रह रहे हैं।’’
‘‘कितने लोग रहते हैं सब कुल उस घर में।’’
‘‘जी ... जी ... ?’’
‘‘अरे कितने लोग रहते हैं उस घर में ? सीधा सा तो प्रश्न है।’’
‘‘जी ! हम पति-पत्नी, हमारे तीन बेटे, तीन बहुयें, दो अनब्याही कन्यायें और ....’’ वह उँगलियों पर कुछ हिसाब जोड़ता रहा, फिर बोला - ‘‘तीनों बेटों के सात बच्चे।’’
‘‘यानी पन्द्रह लोग। ठीक है न महन्त जी।’’
‘‘ठीक है किंतु इससे क्या अन्तर पड़ता है ?’’ महन्त जी कुछ गड़बड़ाये, उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि महामात्य बात को किधर ले जाना चाहते थे। उन्हें महामात्य पर कतई विश्वास नहीं था। उनकी तीखी, भीतर तक बेधती हुई दृष्टि से वे बहुत घबराते थे। इसीलिये वे महारानी के पास आये थे। महारानी उनकी बात सुन कर महामात्य के कृत्य पर अत्यंत क्रोधित हुई थीं किंतु उन्होंने सीधे महामात्य के निर्णय को पलटने की बजाय शायद उन्हें नीचा दिखाने के लिये या अपनी महत्ता प्रतिपादित करने के लिये उन्हें भी बुला लिया था। महन्त जी इससे आशंकित हुये थे पर वे महारानी को निर्देशित तो नहीं कर सकते थे। फिर भी उन्होंने महारानी के समक्ष महामात्य के खिलाफ खूब जहर उगल दिया था।
‘‘इसका उत्तर बाद में दूँगा। पहले इससे पूरी बात कर लूँ।’’ जाबालि ने महन्त के गड़बड़ाने का आनन्द लिया फिर उस व्यक्ति से पूछा -
‘‘रहने के लिये और कोई घर है तुम्हारे पास ?’’
‘‘नहीं मंत्री जी !’’ उसकी आँखें गीली हो गयी थीं।
‘‘तो अब कहाँ रहेंगे इतने सब लोग ?’’
‘‘जी ! किसी पेड़ के नीचे या जहाँ भगवान स्थान देगा वहीं रह लेंगे।’’
‘‘क्यों अपने परिवार, खास तौर पर स्त्रियों और बच्चों को रहने का स्थान देना तुम्हारा कर्तव्य नहीं है ?’’
‘‘है मंत्री जी ! पर क्या करें भगवान ही नहीं चाहते तो ...’’ अब उस व्यक्ति के बाकायदा आँसू बहने लगे थे।
‘‘क्यों क्या हो गया। जब तुमने अपने मन से बेचा तो अब रो क्यों रहे हो ?’’
वह व्यक्ति क्या जवाब देता, बस रोता रहा।
‘‘अच्छा विक्रय किया क्यों था ? मद्यपान के लिये ?’’ जाबालि ने पुनः प्रश्न किया।
‘‘छी-छी ! जीवन में कभी हाथ नहीं लगाया मद्य को।’’
‘‘तो फिर ... द्यूत के लिये ?’’
‘‘महारानी जी महामात्य अकारण एक सीधे-सादे आदमी को मानसिक रूप से प्रताड़ित कर रहे हैं। सब जानते हैं कि यह बहुत धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति है। मद्य या द्यूत या अन्य किसी भी व्यसन से बहुत दूर है। आमात्य से कहिये कि ऐसे अनर्गल प्रश्न न करें जिनसे किसी का अपमान होता हो। इसने कोई अपराध नहीं किया है, अपनी आवश्यकताओं के चलते बस अपना घर बेचा है।’’ यह लम्बा सा प्रतिवाद महंत जी ने किया था। जाबालि शांत भाव से मुस्कुराते हुये उनकी बात सुनते रहे थे।
‘‘महामात्य महन्त जी की बात सही है। यह व्यक्ति अपराधी नहीं है, कोई ऐसी बात न कहें जिससे इसे पीड़ा पहुँचे या इसका अपमान हो।’’ महारानी ने महंत जी की बात पर अपनी मुहर लगा दी।
‘‘उचित है महारानी। महामात्य की पूरी बात को याद रखियेगा।’’ फिर वे महंत जी की ओर घूमे ‘‘महंत जी चाहें तो अपनी बात एक बार और दोहरा दें।’’
‘‘महामात्य ! उपहास मत कीजिये।’’ महारानी ने फिर टोका। महंत जी महामात्य की ओर देखते हुये छाती फुला कर मुस्कुराने लगे।
‘‘महारानी जानती हैं कि जाबालि कभी उपहास नहीं करता।‘‘ कुछ पल रुक कर पुनः बोले- ‘‘आप अवश्य जानती होंगी किंतु फिर भी मैं हमारे समाज की वर्ण व्यवस्था के विषय में कुछ कहने की अनुमति चाहता हूँ।’’
‘‘कहिये।’’
‘‘महारानी जी हमारे समाज में शूद्रों को मुद्रा से कोई वास्ता ही नहीं होता। होता भी है तो बहुत थोड़ा। राज्य भर के शूद्रों की तलाशी ले लीजिये, शायद सौ रजत मुद्रायें आपको प्राप्त नहीं हो पायेंगी। स्वर्ण मुद्राओं की तो बात ही छोड़ दीजिये। मुद्रा या आभूषण इनके पास तभी आती है जब किसी धनी द्विज के यहाँ शादी विवाह या बच्चे के जन्म या ऐसे ही किसी विशेष उत्सव में निशानी के तौर पर मिल जाती है और उसे ये लोग भी अपने यहाँ विवाह या बच्चों के जन्म या किसी की मृत्यु में खर्च करने के लिये सहेज कर रख देते हैं। ये द्विजों के यहाँ सेवा कार्य करते हैं ...’’ अपनी बात बीच में ही रोकते हुये अचानक वे उस व्यक्ति की ओर मुड़े और पूछा - ‘‘क्यों ! क्या करते हो तुम ? कौन जात हो ?’’
‘‘जी बढ़ई।’’
‘‘अब जैसे यह बढ़ई है। यह जिसके यहाँ भी कार्य करता है वहाँ इसे दिन में रोटी मिलती है खाने को। शाम को अनाज मिल जाता है। सम्पन्न व्यक्तियों के यहाँ या जिनके यहाँ ये अधिक दिन कार्य करते हैं, इन्हें कपड़े भी मिल जाते हैं। इनके घर का प्रत्येक सदस्य कार्य करता है। पढ़ना तो इन्हें होता नहीं, पाँच-छह साल का होते ही बच्चा भी इनके साथ काम करने लगता है और अपना भोजन खुद कमाने लगता है। पदत्राण या पगड़ी या अच्छे वस्त्र पहनने की इन्हें अनुमति ही नहीं है। जेवर इनकी स्त्रियाँ धारण कर नहीं सकतीं। इन्हें मुद्रा की आवश्यकता क्या है ? अब जैसे यह बढ़ई है, इसे अगर कुम्हार से घड़े की आवश्यकता है तो यह उसके यहाँ कुछ कार्य कर देगा और बदले में उससे घड़ा ले लेगा। नहीं तो उसे बदले में अनाज दे देगा। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि अगर इसके पास कोई व्यसन नहीं है तो इसे मुद्रा की आवश्यकता किसलिये पड़ी ?
‘‘खेती ये कर नहीं सकते, इन्हें अधिकार ही नहीं है, इनके पास कृषि भूमि ही नहीं होती इसलिये यह भी संभावना नहीं है कि फसल में नुकसान हो गया इसलिये मुद्रा की आवश्यकता थी या कृषि भूमि क्रय करने के लिये मुद्रा की आवश्यकता थी। आप समझ रही हैं न मेरी बात को ...?
‘‘हाँ ! आप अपनी बात कहते रहिये।’’ अब तक कैकेयी को समझ में आने लगा था कि बात इतनी सीधी नहीं थी जितनी उसने समझी थी। प्रश्न उसके मन में भी दस्तक देने लगा था कि वाकई शूद्र का तो मुद्रा से कोई वास्ता होता ही नहीं। इसे मुद्रा की आवश्यकता क्या थी ?
‘‘महारानी जी ! इनके यहाँ बच्चे के जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत सारे काम बिना मुद्रा के ही सम्पन्न होते हैं। आखिर कार्य तो सारे किसी न किसी शूद्र को ही करने होते हैं और वे सब, इसीकी तरह काम के बदले मुद्रा नहीं माँगते, वे सब काम के बदले आगे-पीछे इससे अपना काम कराते हैं या अनाज लेते हैं।
‘‘महारानी जी शूद्रों पर राज्य की ओर से कोई कर आरोपित होता नहीं। उनसे मिल भी क्या सकता है ? वृद्धों और बीमारों के लिये चिकित्सा व्यवस्था राज्य की ओर से पूरी तरह निःशुल्क उपलब्ध है। फिर इसे मुद्रा की आवश्यकता क्या थी वह भी इतनी मुद्रा की कि इसे अपना घर बेचना पड़ा ? शूद्रों को मुद्रा की आवश्यकता जीवन में मात्र एक कार्य के लिये पड़ती है, जानती हैं महारानी जी किस कार्य के लिये ... ?’’ जाबालि महारानी के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगे।
‘‘नहीं महामात्य ! मुझे तो द्यूत और मद्य के अतिरिक्त ऐसा कोई कार्य स्मरण नहीं हो रहा जिसके लिये इन्हें मुद्रा की आवश्यकता पड़ती हो। आप ही बताइये।’’
‘‘इन्हें मुद्रा की आवश्यकता होती है मात्र ब्राह्मण देवता को दक्षिणा देने के लिये।’’
कैकेयी एक दीर्घ निश्वास लेकर रह गयी।
‘‘जाने दीजिये ...‘‘ वे फिर उस व्यक्ति की ओर मुड़े - ‘‘तो किसलिये बेचा फिर तुमने अपना घर।’’
‘‘जी ! वह माता जी का देहान्त हो गया था। उनका श्राद्ध कर्म करना था।’’ उस व्यक्ति की आँखें गीली हो गयी थीं।
‘‘तो क्या तुम्हारे पास इतने पैसे भी नहीं थे शव का संस्कार कर पाते ? तो आते राज्य की ओर से व्यवस्था हो जाती।’’
‘‘वह तो हो गयी थी ...’’
‘‘फिर ? फिर क्या बात थी ?’’
‘‘जी ! बाकी संस्कार भी तो करने थे। ब्राह्मणों को भोज करना था। महाब्राह्मण को दान करना था।’’
‘‘यह सब किसने बताया था ?’’
‘‘महारानी जी महामात्य अनर्गल प्रश्न कर उस दुखी व्यक्ति को और दुखी कर रहे हैं। कृपया इन्हंे रोकिये।’’ महंत जी ने महारानी से फरियाद की।’’
‘‘कैकेयी का क्रोध उस व्यक्ति के आँसुओं में बह गया था। वह स्थिति को समझने लगी थी। शायद उसकी आँखें भी नम थीं। उसने जाबालि को इशारा किया कि वह जारी रखें।
‘‘बताया नहीं तुमने ?’’
‘‘जी महन्त जी ने।’’
‘‘कितने ब्राह्मणों का भोज करना था ?’’
‘‘जी एक सौ एक ।’’
‘‘क्या ?’’ जाबालि ने चैंकने का अभिनय करते हुये महंत की ओर देखा। फिर बोले -
‘‘महंत जी हराम का माल चरने की आदत पड़ी हुई है लगता है। मनुस्मृति की सूरत देखी है कभी ?’’
‘‘जी। मठ में सारे ग्रन्थ रखे हैं।’’
‘‘कभी पढ़े भी हैं या बस रखे ही हैं ?
‘‘आप मेरा अपमान कर रहे हैं महामात्य। ब्राह्मण के श्राप से डरें।’’
‘‘कुछ नहीं करता ब्राह्मण का श्राप। अगर करता होता तो पहले मैं ही आपको श्राप दे देता।’’
‘‘महारानी जी ! मैं तो बड़ी आशा से आपके पास आया था कि आप न्याय करेंगी। महामात्य की मनमानी को रोकेंगी किंतु आप भी ...’’
‘‘आप मेरे ऊपर आरोप लगा रहे हैं।’’ कैकेयी तीखे स्वर में बोल पड़ी।
‘‘महारानी क्रोधित न हों। अभी तो कुछ प्रश्न बाकी हैं। वैसे महंत जी मेरे प्रश्न को गोल ही कर गये कि ग्रन्थ रखे ही हैं या कभी खोलकर पढ़े भी हैं। खैर ! बैठ जाइये महंत जी। न्याय मिलेगा आपको।

क्रमशः ........................

मौलिक तथा अप्रकाशित

सुलभ अग्निहोत्री

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