For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

राम-रावण कथा (पूर्व-पीठिका) - 6 (3)

कल से आगे ..........................

‘‘नहीं चाहिये मुझे आपसे न्याय।’’ महंत जी फुफकार उठे।
‘‘बैठ जाइये महंत जी।’’ कैकेयी के स्वर के तीखेपन से महंत जी सकपका गये, वे बैठ गये।
‘‘हाँ महामात्य जी आप आगे पूछिये।’’
‘‘हाँ तो क्या नाम बताया तुमने अपना ?’’
‘‘जी गोकरन।’’
‘‘तो गोकरन ! पकवान भी ऐसे ही बताये होंगे जो कभी तुम्हारी माँ ने देखे भी नहीं होंगे ?’’
‘‘जी महन्त जी ने ही हलवाई भेजे थे, उन्होंने ही बनाया था सब कुछ। मुझे तो बहुत सी चीजों के नाम ही नहीं मालूम।’’
‘‘अच्छा एक बात और बता दो। जितने में घर बेचा था उसमें सब निपट गया था या और भी कहीं से उधार लेना पड़ा था ?’’
‘‘जी एक सौ एक स्वर्ण मुद्रायें इन्हीं वणिक महोदय से और उधार ली थीं - दक्षिणा देने के लिये।’’
‘‘अब वह क्या बेच कर चुकाओगे ? मूर्ख !’’ यह चाकू की धार सा तीखा स्वर कैकेयी का था। वह जाबालि से बोली -
‘‘महामात्य महंत जी के लिये क्या दंड हो सकता है ?’’
‘‘अभी रुकिये तो महारानी। अभी तो वणिक महोदय बाकी हैं। जरा उनकी भी तो थाह ले ली जाये। वाद लेकर तो यही आये हैं, महंत जी तो बस इनके साथ आ गये हैं - गरीब को न्याय दिलाने।’’
‘‘उचित है ... उचित है। इन्हें भी कसौटी पर कायदे से कसिये।’’
‘‘हाँ तो वणिक महोदय, क्या चाहते हैं आप ?’’
‘‘मैं कुछ नहीं चाहता महामात्य ! मुझे क्षमा करें, मैं अपना नुकसान सहन कर लूँगा।’’
‘‘ऐसा कैसे हो सकता है। आपको न्याय अवश्य मिलेगा। कितने में खरीदा था घर आपने ?’’
‘‘मुझे न्याय राजसभा में ही मिल गया था। मैं उससे संतुष्ट हूँ।’’
‘‘मेरे प्रश्न का जवाब दीजिये। या अवज्ञा का अभियोग चलाया जाये आप पर ?’’
‘‘जी सौ स्वर्ण मुद्राओं में।’’
‘‘किंतु घर की कीमत तो इससे बहुत अधिक होगी। कम से कम एक सहस्त्र स्वर्ण मुद्रायें, अधिक भी हो सकती है। इतने में कैसे बेच दिया इसने ?’’
‘‘जी यही बता सकता है। मैं ने तो इसे बेचने के लिये बाध्य किया नहीं था। मेरे पास मात्र दो सौ एक स्वर्ण मुद्रायें थी सो सब मैंने इसे दे दी थीं।’’
‘‘वह बाध्य करने वाला कार्य तो आपका हित साधने के लिये महंत जी ने किया था, इसे नर्क का भय और माँ के लिये स्वर्ग का लालच दे कर। प्रश्न यह है कि महंत जी को इस कार्य के बदले आपने क्या उत्कोच दिया था ?’’
‘‘जी ... जी ... यह क्या कह रहे हैं आप ? मैंने ऐसा कुछ नहीं किया।’’ वणिक बुरी तरह से बौखला गया था। वह काँपने लगा था।
‘‘वणिक महोदय ! आपको महंत जी की तरह कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं है। उत्कोच साबित तो कर दूँगा मैं, फिर समझ लीजियेगा आपकी क्या गत बनेगी।’’
‘‘महारानी मुझ गरीब पर दया करें। मैंने कुछ नहीं किया।’’ उसकी आँखों से आँसू बहने लगे थे।
‘‘जवाब दो महामात्य को।’’ कैकेयी की मुखमुद्रा अत्यंत गंभीर थी किंतु स्वर अत्यंत शांत था। वणिक को यह शांति तूफान के पहले की शांति जैसी लगी। वह और घबरा गया।
‘‘महामात्य मुझे क्षमा कर दें। दुबारा कोई भूल नहीं होगी। क्षमा करें मुझे, मेरे बाल-बच्चों पर दया करें।’’
‘‘क्या बक रहे हो मेवाराम ? बिना किसी अपराध के क्षमा माँग रहे हो, मुझे उत्कोच के अपराध में घसीट रहे हो।’’ महंत जी अचानक चिल्ला उठे।
‘‘मैं कहाँ कुछ कह रहा हूँ महंत जी। मैं तो बस क्षमा माँग रहा हूँ।’’ वह वणिक जिसका नाम मेवाराम था रोते हुये बोला, बेचारा महामात्य की एक ही घुड़की में चरमरा गया था।
‘‘उन्हें चीखने दो, तुम मुझे उत्तर दो मेवाराम ! अन्यथा सारी मेवा राजकोष में चली जायेगी।’’
‘‘महामात्य ! मैं ब्राह्मण के ऊपर कैसे आरोप लगा दूँ ? मुझसे यह पाप नहीं होगा।’’
‘‘तात्पर्य यह कि आप स्वयं ईश्वर के प्रतिनिधि महाराज के आदेश की अवहेलना करेंगे। इस ब्राह्मण से अधिक शुद्ध इस दूसरे ब्राह्मण - अयोध्या के महामात्य जाबालि के आदेश की अवहेलना करेंगे।’’
‘‘मेवाराम नरक में जाओगे।’’
‘‘अपना नर्क अपने पास ही रखें महंत जी। स्वर्ग-नर्क सब यहीं है। जाबालि को आपसे अधिक ज्ञान है शास्त्र का भी और प्राकृतिक व्यवस्था का भी।’’ अब जाबालि का स्वर शेर की गुर्राहट सरीखा हो गया था - ‘‘मैंने पहले ही कहा था आपसे कि आपने बहुत बड़ी भूल कर दी है यहाँ आकर।’’ फिर वे मेवाराम की ओर घूमे -
‘‘अभी तक उत्तर नहीं दिया तुमने ?’’
‘‘स... स... स ... एक सहस्त्र स्वर्ण मुद्रायें।’’ मेवाराम ने आँसुओं से भीगे चेहरे से हकलाते हुये जवाब दिया। उसने अपना चेहरा हथेलियों से छिपा लिया था।
‘‘यह झूठ बोल रहा है महारानी। यह झूठ बोल रहा है। महामात्य इसे जबरदस्ती शब्द दे रहे हैं। एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण, अयोध्या के बड़े मठ के प्रतिष्ठित महन्त को फँसाने का ... अपमानित करने का कुचक्र रच रहे हैं। मैं शान्त नहीं बैठूँगा। मेरी एक आवाज पर अयोध्या में विद्रोह का बिगुल बज जायेगा। और तू मेवाराम ... तेरी तो सात पीढ़ियाँ रौरव नरक भोगेंगी।’’
‘‘महारानी ! अब असली बात सुनिये।’’ महंत के गरजने-बरसने पर कोई ध्यान न देते हुये जाबालि ने कहा -
‘‘इस वणिक ने इसी प्रकार इस महंत के साथ मिलकर ऐसे कई भोले-भाले नागरिकों के मकान हड़प लिये हैं। उनमें से दो तो इस गोकरन के अगल-बगल के ही हैं। यानी इसका मकान दोनों के बीच में पड़ रहा था। अगर तीनों घर इसके पास आ जाते तो तीनों को मिला कर बड़ी सी कोठी बना सकता था। इस कारण मेवाराम की बड़े दिनों से नीयत खराब थी इसके मकान पर। गोकरन मकान बेचने को तैयार नहीं था। क्या करे ? महंत जी ने पहले भी कई तरह के मसलों में लोगों को धर्म का भय दिखा कर इसके छल-प्रपंचों को सहारा दिया था। इस बार भी इसने महंत जी का ही सहारा लिया। महंत जी भी समझते थे कि यह घर मेवाराम के लिये क्या मायने रखता है अतः इन्होंने इससे भरभूख पैसा लिया। महीनों खातिर करवाई सो ब्याज में। ये लोग राह देखने लगे कि कब गोकरन की माता का स्वर्गवास हो और यह अपना जाल फैलायें। बहुत संभव है कि गोकरन की माँ की मृत्यु में भी इन लोगों की कोई कारस्थानी हो किंतु उसका कोई प्रमाण मुझे नहीं मिल सका। ... बहरहाल इन्होंने जाल फैलाया और गोकरन उस जाल में फँस गया।
‘‘महारानी हमारी अनपढ़ प्रजा शास्त्रों के बारे में कुछ नहीं जानती उसे ये कपटी धर्माचार्य जैसे चाहते हैं मूर्ख बनाते हैं। उसके सामने जैसी चाहते हैं वैसी ऊटपटांग, स्वार्थपूर्ण और अतार्किक व्याख्या करते हैं धर्म की, और ये धर्मभीरु लोग, ये वैसे तो आपस में दिन भर कलह करेंगे, बीबी-बच्चों को पीटेंगे, छोटी-छोटी बातों में कपट करेंगे, पर इन लोगों के कपट के खिलाफ कुछ नहीं बोलते। ब्राह्मण के भय के मारे, नरक के भय के मारे, अगले जन्म में कीट-पतंगा होने के भय के मारे सिर झुका कर सारे अत्याचार झेल लेते हैं। वह तो अच्छा हुआ कि गोकरन का एक बेटा समझदार निकला और उसने इस अन्याय के खिलाफ फरियाद कर दी अन्यथा हम इस महंत और इस वणिक के कुचक्र के बारे में कुछ जान ही नहीं पाते।’’
‘‘महामात्य मैंने पूछा था कि इन महंत महाराज के लिये क्या दंड हो सकता है।’’
‘‘महारानी ब्राह्मणों के मामले में हमारा विधान अत्यंत उदार है। उनके बड़े-से बड़े अपराध के लिये अधिकतम दंड यही है कि सिर मुड़ा कर, जो कि अक्सर पहले ही मुँड़ा हुआ होता है, राज्य से निर्वासन कर दिया जाये। उसकी सम्पत्ति अधिग्रहीत नहीं की जा सकती, उसे शारीरिक दंड बहुत विशेष परिस्थिति में वह भी न के बराबर ही दिया जा सकता है।’’
‘‘फिर महामात्य क्या सुझाव है आपका ?’’
‘‘पहले तो एक कथा सुनिये जिससे आपके सामने इन महंतों का आचरण स्पष्ट हो जायेगा।’’
‘‘सुनाइये।’’
‘‘एक बार एक कुत्ते को एक क्रोधी ब्राह्मण ने अकारण बुरी तरह लाठियों से पीट दिया। कुत्ते ने राजा के दरबार में फरियाद की। ब्राह्मण पर दोष सिद्ध हो गया। विधान की स्थिति देखते हुये राजा ने कुत्ते से ही पूछ दिया कि इस ब्राह्मण को क्या दंड दिया जाये। इस पर कुत्ते ने कहा ‘‘महाराज इसे किसी मठ का महंत बना दीजिये।’’ राजा ने उसकी बात मान ली पर फिर भी उत्सुकतावश पूछा कि यह कैसा दंड है, यह तो पारितोषिक हुआ।’’ इस पर कुत्ते ने जवाब दिया कि महाराज मैं भी पूर्व जन्म में एक मठ का महंत ही था। मैंने तो बड़ी ईमानदारी से कार्य किया फिर भी मुझे यह योनि मिली। यह तो महाक्रोधी ब्राह्मण है, इसकी गति तो मुझसे भी बहुत बुरी होगी। आप इसे बड़ा दंड नहीं दे पायेंगे पर ईश्वर इसे बड़ा दंड देगा।’
(’उपरोक्त कथा वाल्मीकि रामायण, उत्तर काण्ड से ही ली गयी है। वहाँ राजा हैं स्वयं श्रीराम। हमारी कथा में अभी श्रीराम का जन्म ही नहीं हुआ है और महंत का प्रसंग आ गया तो यह किसी काल्पनिक राजा के नाम से दे दी गयी है।)
‘‘महारानी ! विधान के अनुसार तो ब्राह्मण पर कोई कारगर दंड नहीं है। हाँ अगर छानबीन करने से इनकी कोई ऐसी त्रुटि मिल जाये जिससे इन्हें ब्राह्मणत्व से च्युत किया जा सके तो काम बन सकता है।’’
‘‘कीजिये महामात्य। पूरी तत्परता से कीजिये। और हाँ वे एक सौ एक स्वर्णमुद्रायें अभी इनसे लेकर राजकोष में जमा करवा दीजिये। इस वणिक ने इस प्रकार जितनी भी सम्पत्ति छल पूर्वक अर्जित की है सब हस्तगत कर सही मालिकों को वापस कर दी जायें। प्रत्येक ऐसी सम्पत्ति पर उनकी कीमत के बराबर अर्थदण्ड भी इस पर आरोपित किया जाये। कोई आनाकानी करे, कोई बखेड़ा करे तो इसकी सारी सम्पत्ति हस्तगत कर ली जाये। इन महंत जी को कुछ दिन राजकीय अतिथिशाला में सत्कार पूर्वक रखा जाये किंतु इनके कक्ष के बाहर अहोरात्र सुरक्षा की व्यवस्था रहनी चाहिये ताकि कोई इन्हें कोई कष्ट न दे पाये। किसी को भी इनके कक्ष में प्रवेश न करने दिया जाये। सबसे बता दीजिये कि महंत जी ने शिकायत की है कि इनके मठ में ही कोई इनके विरुद्ध षड़यंत्र कर रहा है। आपको इस बहाने मठ की पूरी तरह जाँच करने का बहाना मिल जायेगा। जब तक षड़यंत्रकारी नहीं मिल जाता ये राजकीय सुरक्षा में ही रहेंगे। इस बीच आप इनकी पूरी कुंडली बना डालिये ... बाँच डालिये।’’
‘‘हो जायेगा महारानी जी !’’ महामात्य ने कहा। फिर वे उस शूद्र से सम्बोधित हुये -
‘‘और तुम जान लो गोकरन ! तुम्हारे बेटों का पैदा होते ही तुम्हारी पैतृक सम्पत्ति में अधिकार बन जाता है। तुम्हारे तीन बेटे हैं चैथे तुम हो इस प्रकार उस घर में तुम्हारा हक मात्र एक चैथाई रह गया है। तुम पूरी सम्पत्ति अपनी इच्छा से नहीं बेच सकते। तुमने जो कुछ किया अज्ञानतावश किया, इस महंत के बहकावे में आकर किया इसलिये तुम्हारा अपराध क्षम्य है। तुम्हारा दंड यही है कि अब सम्पत्ति में पूरा अधिकार तुम्हारे बेटों का होगा, तुम्हारा कोई अधिकार नहीं होगा। तुम तो अपनी सम्पत्ति बेच ही चुके हो। फिर भी यह बात तुम्हारे बेटों को नहीं बताई जायेगी ताकि वे तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट न पहुँचायें। आगे सुनो - मनुस्मृति श्राद्धकर्म में मात्र एक ... अधिकतम तीन ब्राह्मणों के भोज की बात करती है। इससे अधिक न जायें यह जिम्मेवारी भी श्राद्ध करने वाले पर नहीं, ब्राह्मणों पर डालती है। इस प्रकार तुम्हारा यह भोज भी शास्त्रोक्त नहीं था, इस भोज से तुम्हारी माता को स्वर्ग नहीं मिलेगा। तुम्हें यह भी पता नहीं होगा पर महंत जी न जानने का बहाना नहीं बना सकते, इन्हें तो पता होना ही चाहिये आखिर महंत हैं। आज तुम्हारे ऊपर कोई दण्डात्मक कार्यवाही नहीं की जा रही है किंतु भविष्य में यदि किसी महंत के चक्कर में आकर तुमने फिर कोई मूर्खतापूर्ण कार्य किया तो तुम्हारे ऊपर कोई दया नहीं की जायेगी। अब जाओ अपने घर।’’
महामात्य के इशारे पर सैनिक महंत और बनिये को अपने साथ ले गये। तब महारानी बोलीं -
‘‘महामात्य जी कृपया मुझे क्षमा करें, मैंने आपके ऊपर अविश्वास किया। आज मैं समझी कि क्यों महाराज आपका इतना सम्मान करते हैं।’’
‘‘महारानी जी मुझे लज्जित मत करें।

............................. क्रमशः

मौलिक एवं अप्रकाशित

- सुलभ अग्निहोत्री

Views: 324

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Jaihind Raipuri is now a member of Open Books Online
5 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Ashok Kumar Raktale's blog post ठहरा यह जीवन
"आदरणीय अशोक भाईजी,आपकी गीत-प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाइयाँ  एक एकाकी-जीवन का बहुत ही मार्मिक…"
9 hours ago
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - ज़िन्दगी की रह-गुज़र दुश्वार भी करते रहे
"धन्यवाद आ. रवि जी "
9 hours ago
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - आँखों की बीनाई जैसा
"स्वागत है आ. रवि जी "
9 hours ago
Ravi Shukla commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - आँखों की बीनाई जैसा
"आदरणीय नीलेश जी जुलाई में इंदौर आ रहा हूँ मिलत है फिर ।  "
12 hours ago
Ravi Shukla commented on अजय गुप्ता 'अजेय's blog post ग़ज़ल (अलग-अलग अब छत्ते हैं)
"      आदरणीय अजय जी ग़ज़ल के प्रयास केलिये आपको बधाई देता हूँ । ऐसा प्रतीत हो रहा है…"
13 hours ago
Ravi Shukla commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - ज़िन्दगी की रह-गुज़र दुश्वार भी करते रहे
"आदरीणीय नीलेश जी तरही मिसरे पर मुशाइरे के बाद एक और गजल क साथ उपस्थिति पर आपको बहुत बहुत मुबारक बाद…"
13 hours ago
Nilesh Shevgaonkar posted blog posts
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on अजय गुप्ता 'अजेय's blog post ग़ज़ल (हर रोज़ नया चेहरा अपने, चेहरे पे बशर चिपकाता है)
"सोलह गाफ की मात्रिक बहर में निबद्ध आपकी प्रस्तुति के कई शेर अच्छे हुए हैं, आदरणीय अजय अजेय जी.…"
yesterday
Nilesh Shevgaonkar commented on अजय गुप्ता 'अजेय's blog post ग़ज़ल (अलग-अलग अब छत्ते हैं)
"आ. अजय जी,क़ाफ़िया उन्मत्त तो सुना था उन्मत्ते पहली बार देखा...तत्ते का भी अर्थ मुझे नहीं पता..उतना…"
yesterday
अजय गुप्ता 'अजेय posted a blog post

ग़ज़ल (अलग-अलग अब छत्ते हैं)

लोग हुए उन्मत्ते हैं बिना आग ही तत्ते हैंगड्डी में सब सत्ते हैं बड़े अनोखे पत्ते हैंउतना तो सामान…See More
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Saurabh Pandey's blog post गजल - जा तुझे इश्क हो // -- सौरभ
"क्या अंदाज है ! क्या मिजाज हैं ! आपकी शुभकामनाओं के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय नीलेश…"
yesterday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service