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गजब ये रंग देखा है जमाने का।
सहारा है सभी को इक बहाने का।
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नजर के तीर से कर चाक दिल मेरा,
कहेगें हाल तो कह दो निशाने का।
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रही आदत खिलौना प्यार को समझा,
किया है खेल रोने औ रुलाने का।
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हमारा दर्द ही हमको सिखाया है,
बुरे हालात में, हँसने हँसाने का।
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मरा है क्यों उसीपे ऐ दिवाना दिल,
हिदायत दे गया जो छोड़ जाने का।
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तड़पते देख हैं-हैरान उनको हम,
जिन्हें उस्ताद माना था सताने का।
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लिखा मैंने वही उल्फत जुड़ी तुमसे
बुरा ही हश्र हुआ मेरे फ़साने का।
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(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
बहुत खूब ग़ज़ल हुई है ..बधाई. गिरिराज जी की बात पर गौर कीजिएगा.
दूसरे और तीसरे शेर में ज़ुज्ब ए रदिफैन नामक दोष है जो दोनों मिसरों के रदीफ़ के एक सामान स्वर पर समाप्त होने को कहते हैं
सादर
बेहद उम्दा ...बहुत बहुत बधाई आप को आदरणीय | सादर |
अच्छी गजल पर ढेरो दाद आपको आ. सुनील प्रसाद(शाहाबादी जी |
आदरणीय सुनील भाई , गज़ल बहुत अच्छी हुई है , दिली मुबारक बाद हाज़िर है । कुछ मिसरे आ.मिथिलेश भाई जी ने सुधार के लिये सुझाये हैं , गर आपको पसंद आये तो ऐसे कह के देखिये --
हमारे दर्द ने ढब ये सिखया है
बुरी हालत में भी हँसने हसाने का
मरा तू क्यों भला उसपे दिवाना दिल,
हिदायत दे गया जो छोड़ जाने का।
कहूँ क्या मै भला उल्फ़त से क्या पाया
बुरा अंजाम था मेरे फ़साने का
आदरणीय , किसी के भाव तक पहुँच के सलाह देना कठिन काम है , फिर भी, अगर सही लगे तो स्वीकार कीजियेगा , अन्यथा और कुछ जो भी आपको सही लगे कह लीजियेगा ॥
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