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क्षणिकाएँ --6 -डॉo विजय शकर

इतने कांटे
कि उनसे बचते-बचते
गुलाब क्या
हर फूल से हम
दूर हो गए .......... 1.

पेड़ कहीं जाते नहीं
फल पक जाएँ
तो रुक पाते नहीं....... 2 .

तुम क्या गये
मेरी तन्हाई
भी ले गये .......…… 3.

और यह भी , यूँ ही,

उनका लिखा शेर खूब चला, खूब चला, खूब चला,
चलना ही था , ट्रक के पीछे जो लिखा था ॥

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 10, 2015 at 12:53pm

आ० विजय सर

क्या बात है , मजा आ गया . सादर .

Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on June 10, 2015 at 11:55am
वाह डॉ विजय भैया बहुत खूब उम्दा कविता और अंत की चुटकी तो बहुत अलबेली नमन आपको।
Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on June 10, 2015 at 11:55am
वाह डॉ विजय भैया बहुत खूब उम्दा कविता और अंत की चुटकी तो बहुत अलबेली नमन आपको।

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