हीरा - क्या ज़माना आ गया , लोगों को बताना पड़ता है , मैं हीरा हूँ , हीरा। बड़ा महंगा होता ही हीरा।
मेरी चमक दूर दूर तक जाती है. कभी राज के राज तबाह हो जाते थे हमारे लिए.
एक नज़र हमें देख कर लोग अपने नसीब को सराहते थे।
रानी - राजकुमारियों को हमारे हार ही सुहाते थे।
( आह भर कर ) अब तो जैसे कोई हमें चाहता ही नहीं। पहचानता भी नहीं.
कोयला - हाँ भाई , बात तो सही है, पर मेरे भाई , वक़्त वक़्त की बात होती है, अब तो हमारा ज़माना है.
कहीं भी रहें कालिख छोड़ते हैं, एक हाथ से दूसरे में जाएँ , दोनों को काला करते हैं।
हमारी दलाली में लोग बदनाम भी होते हैं, फिर भी खूब करते हैं.
राज तो हम भी पलट देते हैं.
और हाँ, ( थोड़ा हस कर ) हमें अपनी पहचान किसी को बतानी नहीं पड़ती। क्या राजा क्या रंक सब हमें जाने हैं.
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत आभार एवं धन्यवाद आदरणीय विजय निकोर जी, सादर।
बहुत ही सुन्दर व्यंग्य। हार्दिक बधाई, आदरणीय विजय जी।
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी, आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार एवं धन्यवाद, सादर।
आदरणीय श्री सुनील जी, आपकी प्रतिक्रिया के लिए आभार एवं धन्यवाद, सादर।
आदरणीय विजय भाई , खूब व्यंग्य किया है , आदरणीय हार्दिक बधाई आपको ॥
प्रिय कृष्ण जी, आपकी उपस्थिति अच्छी लगती है, आपको रचना पसंद आई, आभार,आपकी हार्दिक बधाई हेतु बहुत बहुत धन्यवाद सादर,.
प्रिय जितेंद्र जी, आपकी उपस्थितिअच्छी लगती है, आपको रचना पसंद आई, आभार,बधाई हेतु बहुत बहुत धन्यवाद सादर,.
आदरणीय मोहन सेठी जी, प्रतिक्रिया हेतु आपका आभार,सच में क्या ऐसा नहीं लगता कि जहां कालिख है वहीँ मौज वहीँ चमक है, टिप्पणी हेतु धन्यवाद, सादर।
आदरणीय महिर्षि त्रिपाठी जी, प्रतिक्रिया हेतु आपका आभार एवं धन्यवाद, सादर।
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