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गीतिका --8+8+8 .....फिर आऊँगा

मातृधरा को शीश नवाने फिर आऊँगा

जननी तेरा कर्ज़ चुकाने फिर आऊँगा

 

चंदन जैसी महक रही है जो साँसों में

उस माटी से तिलक लगाने फिर आऊँगा

 

आँसू पीकर खार जमा जिनके सीनों में

उन खेतों में धान उगाने फिर आऊँगा

 

इक दिन तजकर परदेशों का बेगानापन

आखिर अपने ठौर ठिकाने फिर आऊँगा

 

गोपालों के हँसी ठहाके यादों में हैं

चौपालों की शाम सजाने फिर आऊँगा

 

खाट मूँज की छाँव नीम की थका हुआ तन

जेठ दुपहरी में सुस्ताने फिर आऊँगा

 

वन्य फलों की देसी लज़्ज़त होठों पर है

बोर मतीरे तेंदू खाने फिर आऊँगा

 

ताऊ चाचा बाबा खेले जिस आँगन में

उस आँगन में दोड़ लगाने फिर आऊँगा

 

सुख का सहरा जब इस मन को झुलसायेगा

अमराई में राहत पाने फिर आऊँगा

 

भेद खुलेगा मृगतृष्णाओं का भी इक दिन

पनघट पर ही प्यास बुझाने फिर आऊँगा

 

छोर गगन का छू पायेगी क्या परवाज़ें

फुनगी पर ही नीड़ बनाने फिर आऊँगा

 

शहरी बाना तन पर लेकिन मन देहाती

तन मन का यह भेद मिटाने फिर आऊँगा

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by maharshi tripathi on February 11, 2015 at 7:42pm

आ. खुर्शीद जी ,,,,,बेहतरीन रचना पर आपको बधाई |

Comment by SHARAD SINGH "VINOD" on February 11, 2015 at 7:02pm

खाट मूँज की छाँव नीम की थका हुआ तन
जेठ दुपहरी में सुस्ताने फिर आऊँगा... आदरणीय खुर्शीद जी अति सुंदर क्य खूब कल्पना को शब्द दिया.
बोर मतीरे तेंदू खाने फिर आऊँगा.... इस पंक्ति मे दिये गये व्यंजन हमारे लिये नये है कृपया स्पष्ट करेंगे?


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 11, 2015 at 4:28pm

आदरणीय खुर्शीद भाई , क्या बात है , भाई , लाजवाब रचना की है ॥

आपकी रचना अपने साथ बहा के ले गई , उन दिनों में । दिल से शुभ कामनायें , और बधाइयाँ ।

इक दिन तजकर परदेशों का बेगानापन

आखिर अपने ठौर ठिकाने फिर आऊँगा

गोपालों के हँसी ठहाके यादों में हैं

चौपालों की शाम सजाने फिर आऊँगा

शहरी बाना तन पर लेकिन मन देहाती

तन मन का यह भेद मिटाने फिर आऊँगा ----- बस जवाब नहीं ॥

Comment by Shyam Narain Verma on February 11, 2015 at 11:52am
इस सुंदर प्रस्तुति के लिए तहे दिल बधाई सादर

कृपया ध्यान दे...

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