२१२२ — १२१२ — ११२(२२)
खिल रहे हैं सुमन बहारों में
झूमता है पवन बहारों में
ओढ़कर फागुनी चुनर देखो
सज गया है चमन बहारों में
आइने की तरह चमकता है
निखरा निखरा गगन बहारों में
यूँ तो संजीदा हूं बहुत यारों
हो गया शोख़ मन बहारों में
देखते हैं खिलाता है क्या गुल
आपका आगमन बहारों में
हो धनुष कामदेव का जैसे
तेरे तीखे नयन बहारों में
घुल गई है फिज़ा में मदिरा सी
हो गई सुध हिरन बहारों में
धूप लगती है शाल जैसी
है सुहानी तपन बहारों में
होश ‘खुरशीद’ जी न खो देना
रखना काबू में मन बहारों में
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय विजयशंकर सर , आदरणीय सर्वेश कुमार जी , आदरणीय दिनेश जी ,आप सभी का ह्रदय से आभार |सादर
आदरणीय खुर्शीदजी बधाई स्वीकार करें...
धूप लगती है शाल जैसी......बहर के हिसाब से कुछ छूट रहा है
हो धनुष कामदेव का जैस
तेरे तीखे नयन बहारों में.....धनुष और तीखे नयन ..थोड़ी असुबिधा में हूँ हों करके पढने से सही लग रहा है लेकिन बहुतसारे धनुष rहोना भी सही नहीं लग रहा है .आदरणीय सर हो सकता है मैं समझ न पा रहा हूँ अन्यथा न लीगियेगा ..बस एक संशय था इसलिए लिखा ...इस शानदार रचना पर हार्दिक बधाई सादर
वाह सर बेहतरीन
वाह सर मिथिलेश जी ने भरपूर कह दिया है बहुत खूब ग़ज़ल हुई है बधाई स्वीकारें
आदरणीय ख़ुरशीद जी बहुत शानदार ,
यूँ तो संजीदा हूं बहुत यारों
हो गया शोख़ मन बहारों में.....संपूर्ण रचना सुन्दर है , हार्दिक बधाई आपको ! सादर
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