For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

राम-रावण कथा (पूर्व-पीठिका) - 9 (1)

.............. कल से आगे


‘‘उठो वत्स रावण !
‘‘तुम दोनो भी उठो कुंभकर्ण और विभीषण !’’
आवाज सुन कर तीनों अचंभित हुये, यह किसकी आवाज थी। यह तो पहले कभी नहीं सुनी थी। कितनी गंभीर फिर भी कितनी मृदु।
‘‘आँखें खोलो वत्स ! अपने प्रतितामह से साक्षात नहीं करोगे ?’’
तीनों ने आँखें खोल दीं। सामने सच में ब्रह्मा खड़े हुये उन्हें आवाज दे रहे थे। ठीक वही छवि जैसी मातामह ने बताई थी। कमर में गेरुआ अधोवस्त, कंधे पर यज्ञोवपीत अत्यंत गौरवर्ण, लंबा कद, लंबी सी धवल दाढ़ी और सुदीर्घ वैसी ही धवल केश राशि। तीनों हर्ष से भर उठे। फिर उठे और उनके चरणों में दण्डवत लेट गये। रावण के दोनों हाथ उनके एक चरण पर थे। पर यह क्या ? हाथों को ऐसा क्यों लग रहा था कि उन्होंने किसी के चरणों को नहीं पृथ्वी को ही स्पर्श किया हो। वहाँ पर प्रपितामह के चरण नहीं शून्य ही हो। उसने चैंक कर प्रपितामह के मुख की ओर देखा। ऐसी ही स्थिति कुंभकर्ण और विभीषण की भी थी। वे भी अचंभित से ब्रह्मा के मुख की ओर देख रहे थे। ब्रह्मा हँस पड़े। कितनी मोहनी हँसी थी। ऐसा लगा जैसे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में मधुर हास्य गूँज उठा हो। तीनों सम्मोहित से हो गये। ब्रह्मा ने आशीर्वाद दिया -
‘‘यशस्वी भव ! तुम्हारे सारे मनोरथ सफलीभूत हों। बैठ जाओ वत्स, मुझे अपनी वंशवेलि के सबसे नन्हें सदस्यों का मुख तो देखने दो इत्मीनान से।’’
तीनों मंत्रमुग्ध से बैठ गये। उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या बोलें।
‘‘प्रपितामह भारी पड़ता है, हम आपको पितामह कह सकते हैं।’’ स्वयं को संयत करते हुये रावण ने बातचीत का सिलसिला आरंभ करना चाहा।
ब्रह्मा स्नेह से तीनों का चेहरा निहार रहे थे, वे मुस्कुराये फिर बोले -
‘‘समस्त ब्रह्माण्ड मुझे पितामह ही कहता है। फिर तुम तो मुझे ब्रह्मांड में सबसे प्यारे हो। जो इच्छा हो कह सकते हो। अरे हाँ वह कहाँ है चन्द्रनखा, उसे भी तो बुलाओ। जाओ विभीषण, दौड़ कर जाओ।’’
विभीषण तुरन्त उठ कर चन्द्रनखा को आवाज देता हुआ भागा और पलक झपकते ही वन में ओझल हो गया।

विभीषण कुटीरों से दूर ही था जब उसने उसने देखा कि उसकी आवाजें सुन कर चन्द्रनखा भागी आ रही है। वह वहीं रुक गया और चिल्लाया -
‘‘चन्द्रनखे ! चन्द्रनखे ! चल पितामह बुलाते हैं।’’
‘‘पितामह ? वे कैसे आ गये ? वे तो पिता के घर भी नहीं आये थे कभी।’’
‘‘अरे सवाल छोड़ दौड़ कर आ।’’
‘‘अरे मुनिवर पुलस्त्य आये हैं। चल हम भी चलते हैं। पिता ! पिता ....’’चन्द्रनखा के पीछे-पीछे प्रहस्त भी निकल आया था। उसने कहा।
‘‘अरे वे पितामह नहीं, प्रपितामह ... ब्रह्मा आये हैं।’’
‘‘क्या ? आ गये। आह !’’ प्रहस्त के मुख पर अनायास अपूर्व उल्लास तैर गया। उसने आकाश की ओर हाथ उठा दिये और इनके साथ चल दिया। ‘‘चल। मैं भी चलता हूँ।’’
‘‘नहीं प्रहस्त ! तुम रुको।’’ प्रहस्त की आवाज सुन कर सुमाली भी बाहर आ गया था, उसने प्रहस्त को रोक दिया।
प्रहस्त रुक गया। विभषण और चन्द्रनखा भी रुक गये और प्रश्नवाचक निगाहों से सुमाली की ओर देखने लगे।
‘‘तुम दोनों जाओ। आज तो तुम्हारी तपस्या सफल हुई है। जाओ अपने प्रपितामह का भरपूर आशीर्वाद लो जाकर।’’
वे दोनों उछलते-कूदते, दौड़ते चले गये तो सुमाली प्रहस्त से बोला -
‘‘वे उनका परिवार हैं। ब्रह्मा अपना सारा स्नेह उनपर सहजता से अपने आप उँडेल देंगे। उन्हें अकेले ही रहने दो। हम लोगों के जाने से बात बिगड़ भी सकती है। या स्नेह में कटौती भी हो सकती है। आओ हम लोग दूर से, उधर पेड़ों के पीछे से देखते हैं। अब तक यह आवाजें सुनकर सारा कुनबा इकट्ठा हो गया था। सब शीघ्रता से पेड़ों के झुरमुट की ओर बढ़ चले।

विभीषण और चन्द्रनखा पहुँचे तो ब्रह्मा, रावण और कुंभकर्ण तीनों किसी बात पर खुल कर हँस रहे थे।
चन्द्रनखा ने दूर से ही हाथ जोड़ कर ब्रह्मा को प्रणाम किया -
‘‘प्रणाम पितामह !’’
‘‘आशीर्वाद पुत्री। आयुष्मान भव !’’
‘‘पितामह ! तपस्या तो हम लोगों ने की थी और आते ही सबसे पहले पूछा आपने इसे। इसने तो कभी आपको याद भी नहीं किया था।’’
‘‘पितामह भइया झूठ बोलते हैं। मैं भी आपको नित्य याद करती थी।’’
‘‘अरे लड़ो मत। यह सबसे प्यारी जो है, इसीसे मैंने इसे पूछा था। फिर तुम लोग तो यहीं उपस्थित थे। यही नहीं थी, मुझे तो अपने सारे बच्चों से मिलना था।’’
‘‘पितामह ! लेकिन आपने इसके बारे में जाना कैसे ? तपस्या में तो यह कभी बैठी ही नहीं थी।’’ इस बार विभीषण ने पूछा।
‘‘अरे ! तुम लोग जब यहाँ तपस्या में बैठते थे तो यह भी घर में मन ही मन मुझे याद करती थी।‘‘ ब्रह्म ने चन्द्रनखा का मन रखने के लिये बात बना दी। ‘‘करती थी न चन्द्रनखे।’’
‘‘जी पितामह ! करती थी।’’
‘‘देखा । यह भी करती थी।’’ ब्रह्मा फिर खुल कर हँसे। फिर बोले -
‘‘तुम्हारे मन में कुछ प्रश्न चल रहे हैं, पूछते क्यों नहीं वत्स रावण ?’’
रावण झेंप गया। पितामह ने उसके मन की बात पकड़ ली थी। फिर बोला -
‘‘पितामह हमने जब आपके चरण स्पर्श किये तो हमें ऐसा क्यों लगा जैसे वहाँ मात्र शून्य ही व्याप्त हो ?’’
‘‘ऐसा है वत्स ! जब तुम लोगों की पुकार मेरी मानसिक तरंगों से टकरायी तो मैंने ध्यान लगा कर तुम्हें देखा। मुझे तुम्हारा सारा इतिवृत्त पता चल गया। मैं तो प्रसन्नता से नाच उठा। तुम लोगों का तो कोई पता ही नहीं था अब जब पता चला तो सब्र ही नहीं हुआ। अब मैं बैठा तो था उतनी दूर ब्रह्मलोक में। आने में बहुत समय लग जाता पर मैं तो अविलम्ब मिलना चाहता था तुमसे। तो मैंने अपनी मानसिक शक्ति से अपनी त्रिआयामी छवि यहाँ तुम्हारे सामने प्रक्षिप्त की और उसके माध्यम से मानसिक रूप से तुम्हारे सामने आ गया। यह जो तुम मुझे देख रहे हो न, वस्तुतः यह मात्र मेरी छवि है, मेरा शरीर तो अभी ब्रह्मलोक में ही बैठा है। बस इसीलिये तुम मेरे शरीर को स्पर्श नहीं कर पाये, मात्र शून्य का आभास हुआ तुम्हें। पर बहुत शीघ्र मैं सशरीर आऊँगा तुम्हारे पास। तुम्हें आलिंगन में भरने को मेरा मन भी हुलस रहा है।’’
‘‘पितामह क्या हम भी आपकी तरह अपनी त्रिआयामी छवि प्रक्षिप्त कर सकते हैं।’’
‘‘क्यों नहीं कर सकते ? पर अभी नहीं, उसके लिये बहुत अभ्यास की आवश्यकता होती है।’’
‘‘कब कर पायेंगे हम ऐसा।’’ कुंभकर्ण ने पूछा।
‘‘ब्रह्मा पुनः हँसे। वही स्निग्ध, धवल हँसी। बोले ‘‘अरे ! उतावले नहीं होते। उतावली में किया गया काम बिगड़ जाता है। बस अभ्यास किये रहो।’’
ऐसे ही बड़ी देर तक बातें होती रहीं उनमें। चारों को यह आभास ही नहीं हो रहा था कि यह ब्रह्मा से उनकी पहली भेंट है। उन्हें तो ऐसा लग रहा था जैसे वे सदा से उनके साथ ही उनके स्नेह की छाया में रहते आये हैं। तब ब्रह्मा बोले -
‘‘अच्छा बच्चों अब तो मुझे चलना होगा। बहुत देर हो गयी, पर क्या करूँ तुमसे दूर जाने का मन ही नहीं हो रहा।’’
‘‘तो रुकिये न पितामह ! हमारा मन भी नहीं हो रहा कि अभी आप जायें। पहली बार तो मिले हैं हम आपसे।’’ रावण ने कहा।
‘‘अत्यंत आवश्यक है पुत्रों, पर चलो थोड़ी देर और सही।
‘‘आहा !’’ चन्द्रनखा ने ताली बजाई ‘‘रुक गये पितामह।’’
‘‘अच्छा तुम सब एक-एक कर अपनी इच्छा बताओ।’’
‘‘मैं तो अमर होना चाहता हूँ पितामह !’’
‘‘यह किसने कह दिया वत्स तुमसे कि अमर भी हुआ जा सकता है। कोई भी जिसका जन्म हुआ है, चह चाहे चेतन हो या जड़ उसका विनाश अवश्यंभावी है। मैं भी अविनाशी नहीं हूँ। हाँ योग और प्राणायाम का मेरा अभ्यास इतना लम्बा है कि जरा मेरे पास आने से घबराती है। किंतु मैं भी मात्र दीर्घजीवी हूँ, अमर नहीं। वे सारी योग क्रियायें मैं तुम्हें भी सिखा दूँगा। अच्छा और बताओ ! ’’
‘‘और पितामह ! ... देव, दावन, गंधर्व, नाग, यक्ष आदि कोई भी मेरा वध न पाये।’’ रावण ने कुछ देर सोचने के उपरांत कहा।
‘‘यानी घूम-फिर कर फिर वही बात ! ब्रह्मा फिर हँसे। बच्चों की बातें उन्हें आनंद में डुबो रही थीं। आज बहुत समय बाद वे स्वयं को इतना हल्का फुल्का महसूस कर रहे थे। बच्चों का साथ उन्हें कहाँ मिल पाता था। उनके सामने तो बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, देव-दानव आदि जटिल प्रश्न लिये उपस्थित रहते थे। हँसते हुये ही वे आगे बोले - ‘‘पर तुमने इसमें मनुष्यों का नाम तो लिया ही नहीं।’’
‘‘मनुष्यों को तो हम यूँ मसल देंगे पितामह !’’ दोनों हथेलियों को आपस में रगड़ने का इशारा करते हुये कुंभकर्ण बीच में ही बोल पड़ा।
ब्रह्मा और जोर से हँस पड़े फिर घोर आश्चर्य का अभिनय करते हुये बोले -
‘‘अच्छा !!!! इतना बल है तुममें।’’
‘‘हाँ पितामह ! मेरे शरीर से दिखाई नहीं देता।’’
‘‘दिखाई देता है। दिखाई देता है।’’ हँसी रोकने का प्रयास करते हुये ब्रह्मा बोले।
‘‘पितामह खाता भी तो कितना है। इसका बस चले तो सबके हिस्से का भोजन खा डाले।’’ यह चन्द्रनखा थी।
‘‘ऐसा ? क्यों कुंभकर्ण चन्द्रनखा का हिस्सा तो नहीं खाते ?’’ ब्रह्मा ने पुनः आश्चर्य का अभिनय किया।‘‘
नहीं पितामह ! माता देती ही नहीं।’’
‘‘तब ठीक है।’’
‘‘कभी खाये तो तुम मुझसे शिकायत कर देना। मैं इसके कान खींच कर कानों से सब निकाल लूँगा।’’ बच्चों के संग ब्रह्मा भी बच्चे बन गये थे।
‘‘अच्छा एक बात बताओ’’ ब्रह्मा ने थोड़ा गंभीर होते हुये पूछा- ‘‘मुझे लगता है कहानियाँ अधिक सुनते हो तुम लोग। तभी वरदान और श्राप पर इतना यकीन है। है न ऐसी बात ?’’
‘‘कभी-कभी मातुल सुनाते हैं ऐसी कहानियाँ।’’ रावण ने कहा।
‘‘वे सारी कहानियाँ झूठी हैं। वरदान और श्राप कोई तर्क ये ऊपर की शक्तियाँ नहीं है कि बस कहा और हो गया।’’

क्रमशः

मौलिक व अप्रकाशित

- सुलभ अग्निहोत्री

Views: 504

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 1, 2016 at 2:10pm

आगामी कड़ियों के प्रति उत्सुकता बनी है .. 

शुभस्य शीघ्रम् 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . विविध
"आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। सुंदर दोहे हुए हैं।हार्दिक बधाई। भाई रामबली जी का कथन उचित है।…"
yesterday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . विविध
"आदरणीय रामबली जी सृजन आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया से समृद्ध हुआ । बात  आपकी सही है रिद्म में…"
Tuesday
रामबली गुप्ता commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . विविध
"बड़े ही सुंदर दोहे हुए हैं भाई जी लेकिन चावल और भात दोनों एक ही बात है। सम्भव हो तो भात की जगह दाल…"
Monday
रामबली गुप्ता commented on रामबली गुप्ता's blog post कुंडलिया छंद
"हार्दिक आभार भाई लक्ष्मण धामी जी"
Monday
रामबली गुप्ता commented on रामबली गुप्ता's blog post कुंडलिया छंद
"हार्दिक आभार भाई चेतन प्रकाश जी"
Monday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आदरणीय, सुशील सरना जी,नमस्कार, पहली बार आपकी पोस्ट किसी ओ. बी. ओ. के किसी आयोजन में दृष्टिगोचर हुई।…"
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . . रिश्ते
"आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी सृजन आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया से समृद्ध हुआ । हार्दिक आभार आदरणीय "
Sunday
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार "
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . संबंध
"आदरणीय रामबली जी सृजन के भावों को आत्मीय मान से सम्मानित करने का दिल से आभार ।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आ. भाई चेतन जी, सादर अभिवादन। अच्छे दोहे हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। सुंदर छंद हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
Sunday
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"रोला छंद . . . . हृदय न माने बात, कभी वो काम न करना ।सदा सत्य के साथ , राह  पर …"
Sunday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service