अरकान - 122 122 122 122
किया जिसने दिल में ही घर धीरे-धीरे|
उसी ने रुलाया मगर धीरे –धीरे|
उमर मेरी गुजरी है यादों में जिनकी ,
हुई आज उनको खबर धीरे –धीरे |
जहाँ तक पहुचने की ख्वाहिश है मेरी,
यकीनन मैं पहुंचूंगा पर धीरे –धीरे|
बचपन में सरका जवानी में दौड़ा,
बुढापा गया अब ठहर धीरे-धीरे|
न शिकवा किसी से न है अब शिकायत,
भरा घाव मेरा मगर धीरे –धीरे|
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय रवि शुक्ला साहेब ...... हौसला अफ़जाई व उचित सलाह हेतु, बहुत-बहुत शुक्रया|
आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी ..........बहुत -बहुत शुक्रिया|
आदरणीय बैजनाथ जी सीधी सादी जुबान में आपने अपने जीवन का दर्शन बयान कर दिया बहुत बहुत बधाई आपको इस ग़ज़ल के लिये
जहाँ तक पहुचने की ख्वाहिश है मेरी,
यकीनन मैं पहुंचूंगा पर धीरे –धीरे| इंशा अल्लाह ऐसा ही होगा श्ुाभकामनाएं लीजिये हमारी
न शिकवा किसी से न है अब शिकायत,
भरा घाव मेरा मगर धीरे –धीरे| धीरज को आपने अपने अंदाज से बयान किया है बधाई लीजिये
उमर को आपने 12 के वज्न में बांधा है मगर ये 21 के वज्न में लिखा जाने वाला लफ्ज है देख लीजियेगा ।
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