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घोंसलों से पलायन करते परिंदे
आकाश की ऊँचाई नापने निकलते हैं
पंख फैलाने की सीख घर से लेके
मदमस्त गगन में उड़ते हैं
जहाँ दाना देखा उतर जाते
फिर नये झुंड के साथ , नयी दिशा में मुड़ जाते

नीले गगन की सैर, इंद्रधनुष की अंगड़ाई में लीन
कभी आसमान में स्वतंतरा, कभी हवा के बहाव के आधीन
घोंसले की गर्मी और मा के दुलार को भूल
नये चेहरों को आँखटे, उनके संग हो लेते परिंदे
किसी तालाब में डुबकी लगाते, पंखों को भिगोते
नर्म रेत मे सर धँसा के, ज़मीन से बाते करते

मगर क्या उन्हे उस घोंसले की याद आती है?
क्या माँ की ममता , याद आती है?
पिता की मेहनत, भाई बहनो से एक निवाले को लड़ने
की याद आती है?
शायद हन, शायद नही
मैं भी ऐसा ही परिंदा हूँ
उड़ गया था, नभ छूने
अनेक रंगों को देखने
अनेक सुगंधों को महसूस करने
अब घर जाना है
देख लिया जाग सारा,
घर तो बस अपना ही है प्यारा

मेरे पंख समय के बहाव में उड़ चले हैं
स्वाधीन सोच और उड़ान की ओर मुड़ चले हैं
उस घर की मगर अब याद आती है
ना जाने हवा दिशा कब बदलेगी
कब मेरे घर की ओर बहेगी
मैं क्या उस घर को पहचान पाऊँगा?
क्या मैं वहाँ रहना चाहूंगा?
जिस पेड़ पे घोंसला बना है
उसके फल चखने रह गये
उसकी डाल पे झूला झूलना रह गया
क्या मैं कभी वो कर पाऊँगा?
शायद हां शायद नही

ए हवाओं ज़रा पीछे मुड़ो
चलो घर की ओर
जो टूट गयी है
वापिस बाँधने वो डोर
जीवन संध्या होने से पहले
कर दो मेरे हृदय में भोर
चलो घर की ओर
चलो घर की ओर
चलो घर की ओर!


http://journying.blogspot.com/2013_02_01_archive.html

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Comment by Yogi Saraswat on March 21, 2013 at 10:51am

मगर क्या उन्हे उस घोंसले की याद आती है?
क्या माँ की ममता , याद आती है?
पिता की मेहनत, भाई बहनो से एक निवाले को लड़ने
की याद आती है?
शायद हन, शायद नही
मैं भी ऐसा ही परिंदा हूँ
उड़ गया था, नभ छूने
अनेक रंगों को देखने
अनेक सुगंधों को महसूस करने
अब घर जाना है
देख लिया जाग सारा,
घर तो बस अपना ही है प्यारा

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