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बनूँगा, बनाऊंगा ! Copyright (c)

स्मृति बनूँ या बनूँ स्मारक?
सुधार बनूँ या बनूँ सुधाकर?
पिनाकी बनूँ या ब्रह्मास्त्र?
गाण्डीव  बनूँ या पशुपतास्त्र?
मूल बनूँ या मौलिक?
आलोक या अलौकिक?
जीवन या संजीवनी?
दमन या दामिनी?
छंद बनूँ या स्वच्छंद
मुक्तक या निबंध
सागर बनूँगा, छोर भी
सावन बनूँगा, मोर भी
उजाला भी, अंधेरा घनघोर भी
समस्या का तोड़ भी
आशा की डोर भी
उत्तर बनूँगा, प्रश्न भी
सूर्य उष्ण भी

बना बनाया कौन आया
सब यहीं बनते हैं
बनो, बनाओ स्वयं को शांति कमल हरी सा
या तांडव करते शंकर का त्रिशूल
मानव ईश की सबसे प्रखर रचना हो सकती है
या ईश मानव की सबसे बड़ी भूल?
रच जाना ही सबसे प्रमुख ध्येय है
रचयिता ही सृष्टि का मूल |

.

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Sushil.Joshi on November 9, 2013 at 5:08am

वाह..... आपकी निर्मल सोच एवं मनोभावों की इस सुंदर अभिव्यक्ति हेतु हार्दिक बधाई आ0 ध्यानी जी...

Comment by बृजेश नीरज on November 3, 2013 at 11:11am

अच्छी कविता! आपको हार्दिक बधाई!

कहन की गहराइयों के साथ कविता में कवित्त का बचे रहना बहुत आवश्यक होता है!

इस अभिव्यक्ति पर आपको एक बार फिर हार्दिक बधाई! 

Comment by annapurna bajpai on November 2, 2013 at 11:20pm

सुंदर भअव पूर्ण रचना बधाई आपको आ0 अनुपम जी । 

Comment by Ravi Prabhakar on October 31, 2013 at 6:21pm

बहुत बढया, क्‍या बात, क्‍या बात

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on October 31, 2013 at 3:54pm

सुंदर सोच और भावपूर्ण कविता की बधाई अनुपम भाई। हम महापुरुष बन सकते हैं , देवत्व को प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन उधार की विदेशी संस्कृति और विदेशी भाषा और हमारी व्यवस्था  हमें सच्चा , देशभक्त भारतीय  बनने में भी बाधा उत्पन्न करती है । छोटे सपने ही पूरे नहीं होते । साफ कहें तो हम मानव ही नहीं बन पाये। 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 31, 2013 at 1:56pm

बहुत सुन्दर चिंतन से उपजी रचना के लिये आपको बधाई , आदरणीय अनुपम भाई !!!!!!

कृपया ध्यान दे...

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