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ग़ज़ल-करना ख़ुद की वाह वाह ठीक नहीं

करना ख़ुद की वाह वाह ठीक नहीं
बात यह आलमपनाह ठीक नहीं।

.
राहे मंज़िल के हों निशां ज़्यादा
मुझको लगती वो राह ठीक नहीं।

.
कैसे इंसाफ़ मिले मुलजिम को
हो जो मुंसिफ़, गवाह ठीक नहीं।

.
चश्मे बातिन अता है औरत को
किसकी कैसी निगाह ठीक नहीं।

.
हो भी जाने दो अब रिहा इसको
इतनी भी जब्ते आह ठीक नहीं।

.
"अश्क" रंज़ो अलम से घबरा कर
मैक़शी में पनाह ठीक नहीं।

स्व-रचित एवं अप्रकाशित

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Comment by नाथ सोनांचली on July 2, 2017 at 2:44pm
आद0 दिनेश जी सादर अभिवादन, गजल के उम्दा प्रयास पर बधाई। बह्र लिख दें, तो समझने में आसानी हो। सादर
Comment by narendrasinh chauhan on June 30, 2017 at 8:21am

खूबसूरत  रचना 

Comment by Shyam Narain Verma on June 29, 2017 at 11:52am
इस खूबसूरत  रचना की हार्दिक बधाई
Comment by Samar kabeer on June 28, 2017 at 3:11pm
जनाब दिनेश जी आदाब,पहली बार आपकी ग़ज़ल से रुबरु हुआ हूँ,इस मंच पर ग़ज़ल के साथ अरकान लिखने का नियम है,जो आपने नहीं लिखे,कृपया अरकान लिख ढें तो कुछ कहने में आसानी होगी ।
Comment by Mohammed Arif on June 28, 2017 at 12:11pm
आदरणीय दिनेश जी आदाब,बेहतरीन ग़ज़ल । शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए । बह्र की कसौटी पर कितनी खरी है यह ग़ज़ल इस संदर्भ में गुणीजन अपनी राय देंगे ।

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