सच कहता है शख्स वो ,भले बोलता कम है
बहुत सोचता है , भले वो लब खोलता कम है
कितनी भी हावी सियासत हो गयी हो आज भी
वो वादे निभाता तो नहीं , मगर तोड़ता कम है
कहीं जज़बात के रस्ते में कोई दुश्वारियां न हों
वो ख़त भी रखता है , तो लिफाफा मोड़ता कम है
मशीनी हो गयी है , रफ़्तार-ए -ज़िन्दगी , अब
आदमी हाँफता ज़िआदा , मगर दौड़ता कम है
फुटपाथों पे वो नंगे ज़िस्म सो रहा है , "अजय"
चीथड़े पहनता तो है वो , मगर ओढ़ता कम है
अजय कुमार शर्मा
मौलिक और अप्रकाशित
२३-०१-२०१४
Comment
सभी गुणीजन को सादर प्रणाम !
कोशिश तो कि थी किन्तु बह्र का अभ्यास नहीं कर पाया
आगे प्रयास करूंगा
यदि कोई त्रुटि हुयी हो तो क्षमा करेंगे
कहीं जज़बात के रस्ते में कोई दुश्वारियां न हों
वो ख़त भी रखता है , तो लिफाफा मोड़ता कम यह शेर बेहद पसंद आया ..आपको तहे दिल बढ़ाई ..आदरणीय अरुण जी और गिरिराज की सलाह पर अमल जरूर कीजियेगा सादर बधाई के साथ
आ० अजय शर्मा जी
कृपया इस ग़ज़ल की बह्र को भी साझा कर दें ...
आदरणीय अजय भाई , ग़ज़ल मे बातें बहुत अच्छी कही है आपने आपको बधाइयाँ ॥ लेकिन आपके शे र एक ही बह्र मे नही लग रहे है , आदरणीय अरुण की बातों को ज़रूर खयाल करें ॥
भाई अजय शर्मा जी कृपया ग़ज़ल की बह्र से अवगत करायें क्योंकि मतले में ही बह्र का निर्वाह नहीं हुआ है. दूसरी बात मतले में आपने (काफिया ओ लिया) और (रदीफ़ लता कम है) लिया दूसरे शेर में इसका निर्वाह नहीं हो रहा है देख लें. फिर चौथे शेर में काफिया औ लिया है आपने. आप इस मंच पर सक्रिय सदस्य हैं ग़ज़ल से सम्बंधित बहुत सामग्री मौजूद है पाठशाला में लाभ उठायें. काफी कुछ स्पष्ट हो जायेगा. सतत प्रयासरत रहें. सादर
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