उन्मीदों से भी ज़्यादा, बहुत ज़्यादा मिल गया है
ख्वाहिशों का मेरी बे-नूर चेहरा खिल गया है
वो दौलतमंद है इक सिक्के की क़ीमत मालूम क्या उसको
कि इक सिक्के में इस बच्चे का बस्ता सिल गया है
ना चप्पल पाव में न सर पे कोई टोपी भी थी उसके
सुबह इस ठंड में जो बच्चा मज़ूरी को निकल गया है
मुफ़लिसी से नहीं अपनी अमीरी से बहुत लाचार था
वो बदन नंगे जो चौराहे पे , बुत में ढल गया है
वो सवारी बैठाने से पहले ही , किराया बोल देता है
हालात बदले ना बदले उसके , मगर लहज़ा बदल गया है
.
मौलिक अप्रकाशित
अजय कुमार शर्मा
Comment
भाई अजयजी, आप पुराने सदस्य हैं. ग़ज़लनुमा लिखने की ललक कइयों को ग़ज़ल की विधा पर मेहनत करने से रोकती है.
इस मंच पर आदरणीय तिलकराज कपूरजी तथा भाई वीनसजी ने ग़ज़ल विधा से सम्बन्धित कई लेख बहुत मेहनत से साझा किये हैं. आप लाभ लें तो हम पाठकों का भी भला हो.
शुभेच्छाएँ
adarniya gurujano......pranam ....bahut dino ke baad obo pe aaya ......bahar aur metre .....ki samajh nahi hai ....kriypa mardarshan kare...jo kush man me aaya ....kisi swaroop me aa gaya .....kshama prarthi hoo yadi koi galti hui hai....to.......
आदरणीय अजय जी ..भाव बहुत अच्छे लगे लेकिन मैं भी आदरणीय गिरिराज भाईसाब के मशविरे पर ध्यान देने के लिए कहूँगा ..सादर
आदरणीय अजय भाई , रचना के विचार , भाव अच्छे लगे , बधाई आपको । आ. सौरभ भाई जी से मै भी सहमत हूँ , बह्र या शिल्प समझ नही आया ।
जो कुछ आपने कहा इसमें संवेदना है. शिल्प आप बता दें कि यह क्या है ?
बहुत सुन्दर
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