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कलियुग में सतयुग चाहते हैं---- डॉo विजय शंकर

किस युग में रहते हैं हम ,
समय के साथ नहीं चलते हैं ,
सतयुग और द्वापर की बात
कलियुग में करतें हैं हम ,
सुदूर अतीत को वर्तमान में लाते हैं
सतयुग को कलियुग में मिलाते हैं
अपने समसामयिक युग को
समझ नहीं पाते हैं हम ,
महापाप करते हैं हम ,
समय की गति और दिशा
कुछ भी नहीं पहचानते हैं ,
गिरती दीवार थामते हैं हम।
गया वक़्त लौट के नहीं आता
जानते हैं , मानते नहीं हैं हम ।

रावणों के बीच कलियुग में रहते हैं ,
रावण के पुतले जलाते हैं हम ,
पुतले तो रोज न जाने किसके
किसके जलाते रहते हैं हम ,
क्या वो मिट जाते हैं ,
उम्र बढ़ती है , इससे उनकीं ,
वो ऐसा ही मानते हैं ,
रावणों की उम्र बढ़ाते हैं हम ,
हर साल पुतला जलाते हैं ,
इतिहास से कुछ नहीं सीखते ,
सतयुग , द्वापर , त्रेता सबको
कलियुग में चाहते हैं हम।
कलियुग को कोसने से
क्या होगा , कलियुग
विस्थापित नहीं होगा ,
छोड़ो रावण को भूलो
सिर्फ राम बनाओ ,
राम की मर्यादा निभाओ ,
अमर्यादित रावणों को
राम की मर्यादा से हराओ ,
फिर कलियुग को जैसा
चाहो , वैसा बनाओ ॥

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Dr. Vijai Shanker on April 21, 2015 at 1:06am
प्रिय जीतेन्द्र जी कविता की प्रशस्ति के लिए , उसे मान देने के लिए आपका बहुत बहुत आभार , बधाई के लिए धन्यवाद, सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on April 21, 2015 at 1:03am
आदरणीय समर कबीर साहब , नमस्कार, कविता को समय देने के लिए , परखने के लिए , उसे मान देने के लिए आपका बहुत बहुत आभार , धन्यवाद, सादर।
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 20, 2015 at 8:44pm

सुंदर और सकारात्मक सन्देश देती रचना पर बधाई स्वीकारें, आदरणीय डा.विजय जी

Comment by Samar kabeer on April 20, 2015 at 11:02am
आली जनाब डा.विजय शंकर जी,आदाब,आपकी रचना अच्छा संदेश दे रही है,सोचने की दावत देती है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं |

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