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ज़िंदगी भी मटर के जैसी है 

तह खोलो बिखरने लगती है

कितने दाने महफूज़ रहते हैं उन फलियों की आगोशी में

कुछ टेढ़े से कुछ बुचके से कुछ फुले से कुछ पिचके से

हू ब हू रिश्तों के जैसे लगते हैं

कुनबे से परिवारों से कुछ सगे या रिश्तेदारों से

पर सभी आज़ाद होना चाहते हैं कैद से

रिवायतों से बंदिशों से बागवाँ से साजिशों से

ज़िंदगी भी मटर के जैसी है

तह खोलो बिखरने लगती है

(मौलिक व अप्रकाशित) 

आज़ी तमाम

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Comment by Aazi Tamaam on April 11, 2021 at 2:52pm

सहृदय शुक्रिया आदरणीय अमीर जी

हौसला अफ़ज़ाई के लिये आभार

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on April 11, 2021 at 11:12am

जनाब आज़ी तमाम साहिब आदाब, अच्छी नज़्म हुई है, मुबारकबाद पेश करता हूँ। सादर।

Comment by Aazi Tamaam on April 9, 2021 at 9:44pm

शुक्रिया आदरणीय धामी सर

सहृदय धन्यवाद हौसला अफ़ज़ाई के लिये

सादर

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 9, 2021 at 8:04pm

आ. भाई आजी तमाम जी, अभिवादन । अच्छी नज्म हुई है । हार्दिक बधाई ।

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