दोहा पंचक. . . संघर्ष
आज पुराना हो गया, कल का नूतन वर्ष ।
फिर रोटी के चक्र में, डूबा सारा हर्ष ।।
नया पुराना एक सा, निर्धन का हर वर्ष ।
उसके माथे तो लिखा, रोटी का संघर्ष ।।
ढल जाता है साँझ को, भोर जनित उत्साह ।
लेकिन रहती एक सी, दो रोटी की चाह ।।
किसने जाना काल का, कल क्या होगा रूप ।
सुख की होगी छाँव या, दुख की होगी धूप ।।
चार घड़ी का हर्ष फिर , बीता नूतन वर्ष ।
अविरल चलता है मगर, जीवन का संघर्ष ।।
सुशील सरना / 2-1-25
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