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दोहा अष्टक (प्रकृति)

*दोहा अष्टक* 

------------------

पहन पीत पट फूलते,

सरसों यौवन बंध।

चिकनाहट सी गात में,

श्वास तेल की गंध।1।

उड़ते हुए पराग कण,

मधुकर कर गुंजार।

अभिनंदन को मदन के,

जड़ चेतन तैयार।2।

प्रकृति जीव संजीवनी,

सबकी पालनहार।

जन्म मरण इसमें बसा,

जो जीवन का सार।3।

धरा व्योम पाताल में,

खिले प्रकृति के रंग।

लिपटी तरु से बेल यों,

ज्यों दंपति का संग।4।

फूलों की भर टोकरी,

खेल रहे तरु फाग।

मधुकर आते देखकर,

पड़ते दौड़ पराग।5।

सुहावनी सी वात चल,

छूती है लब गाल।

रोम-रोम रम प्यार में,

उठती गिरती झाल।6।

मिले रंग में रंग यों,

ज्यों बगिया में फूल।

मैल मनों का धो रहे,

संग मदन के झूल।7।

मदन हिलौरें ले रहा,

पेंग बनी सब डाल।

छोड़ पुष्प को बिखरती,

गंध अश्व की चाल।8।

मौलिक एवं अप्रकाशित 

सुरेश कुमार 'कल्याण'

कैथल (हरियाणा)

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 14, 2025 at 3:52pm

आदरणीय सुरेश कल्याण जी, दोहों पर आपके प्रयास सधे हुए हैं. किन्तु, कतिपय दोहे मूलभूत नियमों के अनुसार सधे होने आवश्यक है. 
जैसे, विषम चरणों का अंत रगण अथवा रगणात्मक शब्दों से होने चाहिए. ग्यारहवें वर्ण का लघु होना मात्र छंद की गेयता को प्रभावित करता है. यह अलग बात है कि कई विद्वान कवि इसीतरह से चरणों को साधते हैं. जो उचित नहीं है. 

इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई. 

Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on February 8, 2025 at 9:26am

बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय मुसाफ़िर जी 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 6, 2025 at 7:58am

आ. भाई सुरेश जी, सादर अभिवादन। उत्तम दोहे रचे हैं हार्दिक बधाई।

कृपया ध्यान दे...

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