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अपने दिल को तब धड़कते पाया था
गो कि तुम नहीं... तुम्हारा साया था --

तुम अय्यार थे जो संभल गए जल्दी
मैं अब तलक तुम्हे भूल ना पाया था --

जुल्फों की तारीकियों में गुज़रे वो लम्हे
औ कल तुम दिखीं, जब जूड़ा बनाया था --

बहुत सिकुड़ी शब-ए-वस्ल इन बाहों में
जो हुई सहर तो कोई सपना पराया था --

तेरे दर से लौटा तो फ़कीर सा खुश था मैं
नाउम्मीदियों का पोटला भी भर आया था --

लो अश्क बन गए अब दोस्त मिरे 'ताहिर'
ख़याल-ए-इश्क जो तसव्वुर में आया था --



(तारीकियों= अंधेरों; शब-ए-वस्ल= मिलन की रात; सहर= सुबह; तसव्वुर= कल्पना)

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Comment by PREETAM TIWARY(PREET) on August 21, 2010 at 7:40pm
तेरे दर से लौटा तो फ़कीर सा खुश था मैं
नाउम्मीदियों का पोटला भी भर आया था --

लो अश्क बन गए अब दोस्त मिरे 'ताहिर'
ख़याल-ए-इश्क जो तसव्वुर में आया था --

वाह विवेक भाई वाह....इसमे की अधिक पंक्ति को मुझपर लागू होती है......शानदार रचना...बहुत खूब ...
Comment by Rash Bihari Ravi on August 19, 2010 at 3:43pm
khubsurat manmohak
Comment by विवेक मिश्र on August 19, 2010 at 2:51pm
@ राणा जी- आपकी टिप्पणी का धन्यवाद.
@ चतुर्वेदी जी- आपकी इक नज़र का शुक्रिया.
@ सतीश जी- मेरे ख़्याल आपको पसंद आये, मेरे लिए इतना ही बहुत है. धन्यवाद.
Comment by satish mapatpuri on August 19, 2010 at 11:16am
तेरे दर से लौटा तो फ़कीर सा खुश था मैं
नाउम्मीदियों का पोटला भी भर आया था --

लो अश्क बन गए अब दोस्त मिरे 'ताहिर'
बहुत अच्छे ख्याल हैं विवेकजी, शुक्रिया.
ख़याल-ए-इश्क जो तसव्वुर में आया था --

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on August 17, 2010 at 9:01pm
सुन्दर ग़ज़ल!
Comment by विवेक मिश्र on August 17, 2010 at 8:19pm
हा हा हा हा.. वाह गणेश भाई. मेरी ग़ज़ल से ज्यादा अच्छी तो आपकी टिप्पणी है. धन्यवाद..

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 17, 2010 at 8:16pm
वाह, विवेक भाई अब "ताहिर" हो गये,
गज़ल कहने मे देखो माहिर हो गये,
आज दाद देता हूँ खचोलिया भर कर,
आप के अलीम का राज जाहिर हो गये,

अच्छी रचना , बधाई,

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