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ग़ज़ल - ऐसे झूटे' ख्वाबों के............

बस क़दमों की आहट आये' आने का' इमकान कहाँ,
ऐसे झूटे' ख्वाबों के सच होने का' इमकान कहाँ।

उम्मीदों के' बागीचे का' पत्ता पत्ता बिखर गया,
इस गुलशन में' फूलों के' फिर खिलने का' इमकान कहाँ।

दाना खाने' के चक्कर में' पंछी जो' उस पार गये,
खा पीकर भी वापिस उनके' आने का' इमकान कहाँ।

हाँ दौलत के' ढेर नहीं ये' माना माँ के आँचल में,
पर' दो वक्ता रोज़ी के ना' मिलने का' इमकान कहाँ।

डगमग होके' गोते खाए रूहें बाबा अम्मा की,
टूटी नय्या' पर साहिल पे' लगने का' इमकान कहाँ।

अब छोड़ो वो' देस के' वक्ते आखिर है' तुम आ जाओ।
कूच को हम तैय्यार के ज़्यादा रुकने का' इमकान कहाँ।

देख ज़ईफों' की हालत 'इमरान' समा पुरगौहर है,
नई मगर ये' पीढ़ी है नम होने का इमकान कहाँ

इमकान : संभावना
रोज़ी: भोजन
ज़ईफः बूढ़े
समाः आसमान
पुरगौहरः आँसू से भरा

..

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Comment by Lata R.Ojha on December 2, 2011 at 6:43pm

दाना खाने' के चक्कर में' पंछी जो' उस पार गये,
खा पीकर भी वापिस उनके' आने का' इमकान कहाँ।

Bahut khoob  Imran ji ..

Comment by इमरान खान on November 30, 2011 at 12:21pm

शेर को पसंद करने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद @सौरभ भैय्या .... अभी मैं पूरी तरह से जाने गुनगुनाना नहीं सीख पाया .. इसलिए शायद कुछ कमी रह गयी... आगे कोशिश करूंगा के खूब गुनगुनाऊँ ...:)

बहुत बहुत शुक्रिया @वीनस भाई आपकी ज़र्रानवाज़ी का... ;)))))

Comment by वीनस केसरी on November 25, 2011 at 11:26pm

सुन्दर गज़ल के लिए हार्दिक बधाई

मेरे  लिए हासिले ग़ज़ल शेर यह रहा

अब छोड़ो वो' देस के' वक्ते आखिर है' तुम आ जाओ।
कूच को हम तैय्यार के ज़्यादा रुकने का' इमकान कहाँ।
 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 25, 2011 at 6:51pm

//दाना खाने' के चक्कर में' पंछी जो' उस पार गये,
खा पीकर भी वापिस उनके' आने का' इमकान कहाँ।//

 

इमरान भाई,  अच्छे और दुनियादारी से भरे भाव को सुनाता ये शे’र बेहद पसंद आया. वैसे, कहने से पहले थोड़ी देर और गुनगुना लेते तो कुछ अशार और निखर आये होते.  इस ग़ज़ल पर मरी दाद कुबूल फ़रमायें.

 

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