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उन्मुक्त हवाओं के झोंकों........

मन की कोमल घाटी में तुम शूलों से चुभ जाते हो,
उन्मुक्त हवाओं के झोंकों क्यों तन सुलगाने आते हो।

.
मेरे उजड़े उपवन की भी कली कली मुसकाई थी,
बीत गये वो दिन मेरे अधरों पर आशा आई थी।

पत्र टूटता शाखों से मैं चाहूँ धरती में मिलना,
किंतु वायुरथ से तुम मेरे जीवाश्म उड़ाते हो।
उन्मुक्त हवाओं के झोंकों क्यों तन सुलगाने आते हो।
.
तन मन आशा यहाँ तलक मेरा हर रोम जला डाला,
एक अगन ने मेरा जीवन काली भस्म बना डाला।
पीड़ा का अम्बार लगाकर दिवा रात्रि बीत गये,
राख तो यूँ ही रहने दो क्यों यत्र तत्र बिखराते हो।
उन्मुक्त हवाओं के झोंकों क्यों तन सुलगाने आते हो।

.

मन की कोमल घाटी में तुम शूलों से चुभ जाते हो,
उन्मुक्त हवाओं के झोंकों क्यों तन सुलगाने आते हो।

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 26, 2011 at 8:46pm

//तन मन आशा यहाँ तलक मेरा हर रोम जला डाला,
एक अगन ने मेरा जीवन काली भस्म बना डाला।//

इमरान भाई, आपकी रचनाएँ सदैव ह्रदय को झकझोर देने में समर्थवान होती है, यह नज़्म भी उनसे अलग नहीं है, खुबसूरत रचना हेतु बधाई कुबूल करे |


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 26, 2011 at 3:57pm

तत्सम शब्दों से सजी बहुत ही सुन्दर रचना/कविता इमरान भाई.  आत्मव्यथा की शैली एक समय हिंदी रचनाओं की प्रसिद्ध और प्रियतम शैली हुआ करती थी. एक पूरा युग ही इस शैली की रचनाओं के नाम है. आपका प्रयास अच्छा लगा है.

निम्नलिखित पंक्तियों के होने पर हार्दिक बधाइयाँ स्वीकर करें - 

पीड़ा का अम्बार लगाकर दिवा रात्रि बीत गये,
राख तो यूँ ही रहने दो क्यों यत्र तत्र बिखराते हो।
उन्मुक्त हवाओं के झोंकों क्यों तन सुलगाने आते हो।

 

जीवाश्म  तो शब्द के लिहाज से भी अलग सा होता है, भाई.  उसके प्रयोग को फिर से देखिये.

कृपया ध्यान दे...

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