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आदरणीय, लघुकथा पढ़ते समय मुझे लगा था कि शायद अंत में कुम्भ मेले में वो साध्वी के रूप में मिल जायेगी जिसे पिछले कुम्भ में जबरदस्ती ढोंगी साधुओं द्वारा उठा लिया गया होगा,
किन्तु ..
एक था राजा
एक थी रानी
दोनों मर गए
ख़तम कहानी।
लघुकथा को कुछ खूबसूरत मोड़ देकर समाप्त किया जा सकता था. बहरहाल बधाई इस प्रस्तुति पर.
सवाल
तब हवा भी कैद थी। बलिष्ठ बाहों में कसमसाती,फिर ढीली पड़ जाती। आक्रांता अपने ही लोगों की ताकत के बिखराव से सबल बना था। दिशाएं दुखी थीं कि सबला अबला क्यूं है।आकाश स्तब्ध था,पक्षी अपने नीड़ में डरे सहमे पड़े रहते।उनकी उड़ानें प्रतिबंधित थी। एक हाथ का दूसरे पर भरोसा नहीं,भीतरघात चरम पर । फिर धरती की छाती का संचित ताप उसांसों की मानिंद उर्घ्वगामी हो चला।जोर का बवंडर उठा।पकड़ ढीली पाकर हवा आजाद हो गई।लोग खुलकर सांस लेने लगे। प्राण प्रबल हो चले।.......। ' फिर?' एक सवाल गूंज गया। ' यानि?' दूसरा प्रश्न के बदले में उछल चला। कुछ क्षण यह ' फिर - यानि ' का दौर चलने के उपरांत 'फिर ' थम गया। 'यानि ' उसे समझाने के अंदाज में बोला, ' देखो, तब सांस लेने भर की मनाही जैसी थी।लो भी,तो डरते - सहमते।किसी को कानोंकान खबर न हो कि तुमने सांस भी ली है।हवा तो वैसे भी कैद थी।' ' जी ', फिर ने हामी भरी। 'और आज देखो।मुक्त हवा को हम लोग ही कितनी प्रदूषित कर दे रहे हैं।पेट्रोल और बारूद का धुआं पिला रहे हैं उसे।' 'जी,और जिंदगी दूभर हो गई है,ऐसा चिल्ला भी रहे हैं।' फिर बोला।वह अब बातें समझने लगा था। 'इतना ही नहीं। यह धुंआ,जहर भरा धुआं आदमी अपने विचार और व्यवहार से फैला रहा है।' यानि ने फिरकी ली। 'हां,क्यों नहीं?कभी आदमी आत्मोत्सर्ग कर इस सृष्टि का पुरोधा बना,उसे पाला - पोसा;और अब एक - दूसरे की जान का दुश्मन बना बैठा है।' एक अनजान स्वर मद्धिम गति से हवा में तैर गया। ' कौन हो भाई? ' फिर और यानि उत्सुकतावश बोल पड़े। ' मैं लेकिन हूं,लेकिन।आज के समय में हर निषिद्ध कार्य के उत्तरार्ध में मैं सिर उठाता हूं।कर्ताओं को आगाह करना चाहता हूं,पर वे अपने बलशाली लेकिन से मेरे कृशकाय वदन को छलनी कर कुकृत्य के मार्ग पर अग्रसर हो जाते हैं।मेरी नहीं सुनते। आदमी चाहे बिना सिर का हो गया है या सिर बिना मस्तिष्क का। ' ' सच है मित्र, सच है यह।आत्मश्लाघा के इस दौर में श्रवण का मूल्य सीमित हो चला है। कहना प्रधान हो गया है। सर - धर अलग ही समझ लो इनके। लेकिन बोलते बोलते इन नर मुंडों की आवाज धीमी पड़ने लगी है।' फिर और यानि उसे ढाढस बंधाने लगे। मानवजनित मृत्यु के तांडव के उपरांत की चिल्ल पों और आर्त पुकारें भी थमने लगी थीं। तीनों मित्र यानि 'फिर, यानि और लेकिन' फिर से किन्तु - परन्तु करते हुए एक तरफ निकल गए। "मौलिक व अप्रकाशित"
आदाब। हार्दिक स्वागत आदरणीय। मानवेतर लघुकथा चंद उम्दा व दिलचस्प प्रतीकों में कहते हुए बहुत से मुद्दे(हवा/समसामायिक हवायें/विविध प्रदूषण/हिंसा-अराजकता आदि../कथनी-करनी/केवल बड़बोलेपन या धमकी या कोरी कथनोक्तियाँ आदि...) उभारे गये हैं रचना में। परिश्रम दिख रहा है। विषयांतर्गत कथ्य भी सम्प्रेषित हुआ है। हार्दिक बधाई मुहतरम जनाब मनन कुमार सिंह साहिब। लेकिन पहली दफ़ा के पठन में समझने में दिक़्क़त हो रही है हम जैसे सामान्य पाठक को।
आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय उस्मानी जी।
लघुकथा बहुत उलझी हुई है क्योंकि संवाद गड्डमड्ड होने से सम्प्रेष्ण प्रभावशाली नहीं बन पड़ा आ० मनन कुमार सिंह जीl दूसरे, क्योंकि यह लघुकथा सातिरेक संवाद-शैली में है तो संवाद/वार्तालाप की भाषा सरल होनी चाहिए थीl भारी-भरकम शब्दावली नेरेशन में ही सही लगती हैl बहरहाल लघुकथा में प्रदत्त विषय भलीभाँति चित्रित करने का प्रयास हुआ है तो मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करेंl
आपका आभार आदरणीय योगराज जी।
बहुत बढ़िया कथा..
आपका आभार।
//आत्मश्लाघा के इस दौर में श्रवण का मूल्य सीमित हो चला है। कहना प्रधान हो गया है।// यानि फिर और लेकिन को लेकर विचारोत्तोजक कथानक .//फिर से किन्तु - परन्तु करते हुए एक तरफ निकल गए।// ये किन्तु परन्तु ने ही आज ये हालात किये हैं देश के .रचना में संवादों का उलझाव कम किया जा सकता है ,,बधाई इस शानदार रचना के लिये आदरणीय मनन जी
आपका बहुत बहुत आभार आदरणीया प्रतिभा जी।लघुकथा प्रवाहपुर्ण ढंग से अवतरित हुई और दुहराने का,सच कहूं तो,वक़्त मिला नहीं।समुचित सलाह के लिए आपका शुक्रिया।
आदरणीय मनन कुमार सिंह जी कथा पर आदरणीय योगराज भाई साहब के विचारनीय है । इनका मार्गदर्शन मेरे लिए वरदान साबित हुआ है। कृपया आप की बात को संज्ञान में लेकर मनन जरूर कीजिएगा।
भाई, बड़ी मेहनत और जबरदस्ती से पढ़ सका, पर क्या पढ़ा, कुछ समझ न सका. कुछ नहीं कह सकता।
सादर।
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