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आदरणीय साहित्य प्रेमियो,

जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर नव-हस्ताक्षरों, के लिए अपनी कलम की धार को और भी तीक्ष्ण करने का अवसर प्रदान करता है. इसी क्रम में प्रस्तुत है :

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-134

विषय - "मन की व्यथा"

आयोजन अवधि- 18दिसंबर 2021, दिन शनिवार से 19 दिसंबर 2021, दिन रविवार की समाप्ति तक अर्थात कुल दो दिन.

ध्यान रहे : बात बेशक छोटी हो लेकिन ’घाव करे गंभीर’ करने वाली हो तो पद्य- समारोह का आनन्द बहुगुणा हो जाए. आयोजन के लिए दिये विषय को केन्द्रित करते हुए आप सभी अपनी मौलिक एवं अप्रकाशित रचना पद्य-साहित्य की किसी भी विधा में स्वयं द्वारा लाइव पोस्ट कर सकते हैं. साथ ही अन्य साथियों की रचना पर लाइव टिप्पणी भी कर सकते हैं.

उदाहरण स्वरुप पद्य-साहित्य की कुछ विधाओं का नाम सूचीबद्ध किये जा रहे हैं --

तुकांत कविता, अतुकांत आधुनिक कविता, हास्य कविता, गीत-नवगीत, ग़ज़ल, नज़्म, हाइकू, सॉनेट, व्यंग्य काव्य, मुक्तक, शास्त्रीय-छंद जैसे दोहा, चौपाई, कुंडलिया, कवित्त, सवैया, हरिगीतिका आदि.

अति आवश्यक सूचना :-

रचनाओं की संख्या पर कोई बन्धन नहीं है. किन्तु, एक से अधिक रचनाएँ प्रस्तुत करनी हों तो पद्य-साहित्य की अलग अलग विधाओं अथवा अलग अलग छंदों में रचनाएँ प्रस्तुत हों.
रचना केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, अन्य सदस्य की रचना किसी और सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी.
रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी रचना अच्छी तरह से देवनागरी के फॉण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें.
रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे अपनी रचना पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं.
प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें.
नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति को बिना कोई कारण बताये तथा बिना कोई पूर्व सूचना दिए हटाया जा सकता है. यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.
सदस्यगण बार-बार संशोधन हेतु अनुरोध न करें, बल्कि उनकी रचनाओं पर प्राप्त सुझावों को भली-भाँति अध्ययन कर संकलन आने के बाद संशोधन हेतु अनुरोध करें. सदस्यगण ध्यान रखें कि रचनाओं में किन्हीं दोषों या गलतियों पर सुझावों के अनुसार संशोधन कराने को किसी सुविधा की तरह लें, न कि किसी अधिकार की तरह.

आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है. लेकिन बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पायें इसके प्रति टिप्पणीकारों से सकारात्मकता तथा संवेदनशीलता अपेक्षित है.

इस तथ्य पर ध्यान रहे कि स्माइली आदि का असंयमित अथवा अव्यावहारिक प्रयोग तथा बिना अर्थ के पोस्ट आयोजन के स्तर को हल्का करते हैं.

रचनाओं पर टिप्पणियाँ यथासंभव देवनागरी फाण्ट में ही करें. अनावश्यक रूप से स्माइली अथवा रोमन फाण्ट का उपयोग न करें. रोमन फाण्ट में टिप्पणियाँ करना, एक ऐसा रास्ता है जो अन्य कोई उपाय न रहने पर ही अपनाया जाय.

फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो - 18 दिसंबर 2021, दिन शनिवार लगते ही खोल दिया जायेगा।

यदि आप किसी कारणवश अभी तक ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार से नहीं जुड़ सके है तो www.openbooksonline.com पर जाकर प्रथम बार sign up कर लें.

महा-उत्सव के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है ...
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मंच संचालक
ई. गणेश जी बाग़ी 
(संस्थापक सह मुख्य प्रबंधक)
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स्वागतम

सादर अभिवादन।

विषय - "मन की व्यथा"

(दोहे)
***


बढ़ी नहीं है अन्न को, कभी भूमि की लीज।
पर हर शासक  बो  रहा, बारूदों  के बीज।१।
*
सभी सहेजे युद्ध का, बढ़चढ़ कर सामान।
अगर न ऐसी सोच हो,  खाये अन्न जहान।२।
*
औरों को दुख बाँटकर, अपने सुख की खोज
सदा बढ़ाती  मन  व्यथा, सच  है  राजा भोज।३।
*
अपने  पथ  के  शूल  से, चुभें  और  के फूल
जीवन कैसे हो भला, फिर सुख के अनुकूल।४।
*
जो बन्दिश  है  एक को, दूजे  को वह रीत
इससे ही उपजी व्यथा, मन में सबके मीत।५।
*
सुलगाती है काठ को, बुझती मिलकर नीर
बैठी जिस मन में व्यथा, पड़ी पाँव जन्जीर।६।
*
वादा सुख का कर सभी, लाते हैं दुख छाँट।
तेरे मन बैठी  व्यथा, तूँ  तो कुछ सुख बाँट।७।
*
जीवन जिसका हो गया, पीड़ा भरी किताब।
मिटा न पाये मन व्यथा, उसकी कभी शराब।८।
*
कभी जान  मन  की  व्यथा, बने  गैर  भी  मीत।
कारण अब निज स्वार्थ के, आँगन आँगन भीत।९।
*
मंगल तक पहुँचे  कदम, पाया  बहुत अनन्त
रोटी ही मन की व्यथा, क्यों अबतक जीवन्त।१०।
*
जीवन जन कल्याण को, बेमतलब मत हाँक
कम कर थोड़ी  तो व्यथा, सूने  मन में झाँक।११।
*
बेटी तो मन की  व्यथा, हर बेटा मुस्कान
चाहे पहुँचा चाँद तक, बदला नहीं जहान।१२।
*
भली  बुरी  पर  व्यर्थ  है, मन्चों  पर  तकरार
सुन ले जो मन की व्यथा, भली वही सरकार।१३।*
*
बदले पल में साल को, सुख वाली हर बात
कर देती मन की व्यथा, सदियों लम्बी रात।१४।
*
कहो न निज मन की व्यथा, भरी हुई चौपाल
दवा  मिलेगी  कुछ  नहीं, खूब  बजागें  गाल।१५।
**
मौलिक/अप्रकाशित

एक से एक सशक्त दोहों से आपने धन्य कर दिया, आदरणीय लक्ष्मण धामी जी. लेकिन प्रस्तुत दोहे ने तो मुग्ध कर दिया :

भली  बुरी  पर  व्यर्थ  है, मन्चों  पर  तकरार
सुन ले जो मन की व्यथा, भली वही सरकार।। 

अलबत्ता, निम्नलिखित दोहे में पाया को नापा कर दिया जाय तो संप्रेषणीयता बहुमुखी हो जाएगी. ऐसा मुझे प्रतीत होता है. 

मंगल तक पहुँचे  कदम, पाया  बहुत अनन्त
रोटी ही मन की व्यथा, क्यों अबतक जीवन्त।। 

हार्दिक बधाइयाँ.

आयोजन की अबतक की इकलौती प्रस्तुति हेतु आपका आभार. 

आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन । दोहों पर आपकी उपस्थिति और स्नेह से असीम सुख मिला। सदैव छन्दात्मक रचनाओं पर आपकी उपस्थिति की ही प्रतीक्षा रहती है। उसके बाद ही लेखन सार्थक लगता है। यहाँ भी आपकी ही प्रतीक्षा थी। इंगित दोहे पर आपका सुझाव सिरोधार्य है। निश्चित तौर पर इससे

संप्रेषणीयता बहुमुखी हो गयी है। आशा है आगे भी मार्गदर्शन मिलता रहेगा। स्नेहाशीष के लिए कृतज्ञ हूँ।
सन्दर्भतः इकलौती रचना के लिए आपका आभार कहना आपके ही नहीं मेरे मन के दुख को भी बयाँ कर रहा है। यह मंच हमारा अपना है । पर विशाल सदस्य संख्या होने के बावजूद रचनाओं और टिप्पणियों की कमी निश्चित तौर पर अफसोसजनक है। न जाने किस कारण ऐसी अनुपस्थिति है। कभी कभी तो लगता है कि ओबीओ का उद्देश्य धीरे धीरे मर रहा है। न तो पुराने सदस्य और न नये जुड़ने वाले सदस्य उत्साहित नजर आते हैं ।
मेरी लेखन क्षमता में ओबीओ परिवार से जुड़कर ही निखार आया है। यह परिवार दीर्घजीवी बने यही कामना है। सादर...

आपकी व्यथा हम सब की है. 

ओबीओ का उद्येश्य नहीं खोया, कई सदस्यों के कद बड़े हो गये हैं. कुछ यहाँ के माहौल में व्याप गये एकांगी मत को अनगढ़ दवाब समझते हैं. लेकिन यह भी सही है कि ऐसा माहौल तभी बना है, जब वे रेगुलर नहीं हैं. अन्यथा पाठक-सदस्यों का जमावड़ा रहता. ऐसी नीरवता नहीं व्यापती होती.

खैर, समयानुसार सब सही होगा. 

मन की व्यथा

मुझसे क्यों नाराज है,

उदासी का क्या राज है।

बोल दो मन की व्यथा,

कौन सी गिरी गाज है।।

दिन है कि ये रात है,

कैसी ये मुलाकात है ।

आंख हैं जो मूंदी - मूंदी,

खास कोई बात है।।

प्यार में ही मौज है,

काम तो हर रोज है।

पास आ बतलाओ तुम,

किसकी तुमको खोज है।।

उठ कर क्यों चल दिए,

गलत क्या हमने किए।

लौट कर फिर आओगे,

मुंह अपना सा लिए।।

जानों तो हम भी पास हैं,

तुमसे नहीं उदास हैं।

करते क्यों नित झगड़े नए,

कौन से हम बहु - सास हैं।।

क्या कहूं मैं मन की व्यथा,

क्या कहूं मैं मेरी कथा।

रह - रह याद आती मुझे,

यथा राजा प्रजा तथा।।

मौलिक एवम् अप्रकाशित

आ. भाई सुरेश जी, प्रदत्त विषयानुसार अच्छी रचना हुई है। हार्दिक बधाई।

मनहर रचना बन पड़ी है, आदरणीय सुरेश कल्याण जी. न कोई टीम-टाम, न विशेष ताम-झाम. बस सहज-सपाट कथ्य. 

सही शब्द मुँदी-मुँदी है. 

भागीदारी के लिए हार्दिक बघाइयाँ 

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आवश्यक सूचना:-

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