परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 139वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा जनाब बशीर बद्र साहब की गजल से लिया गया है|
"अब उसे देखे हुए, कितने ज़माने हो गए"
2122 2122 2122 212
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
बह्र: बहरे रमल मुसमन महज़ूफ़
रदीफ़ :- हो गए
काफिया :- आने(पुराने, सयाने, तराने, जाने, दाने, सुहाने आदि)
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनांक 28 जनवरी दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 29 जनवरी दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
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मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
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"अब उसे देखे हुए कितने ज़माने हो गए"
2122 - 2122 - 2122 - 212
जब से उन से ख़त्म अपने दोस्ताने हो गये
जितने अपने थे मेरे वो सब बेगाने हो गये
जब तलक थी पर्दापोशी उनको भी तस्कीन थी
आईना देखा है जब से वो दिवाने हो गये
जब से उस ने फेरी नज़रें हो गये बे-कार हम
क़ह्र की उस इक नज़र से बे-ठिकाने हो गये
राज़ जब तक थे छुपे ईमान के पक्के थे वो
भेद जब खुलने लगे तो सौ बहाने हो गये
वो ज़माने और थे जब हम किसीके दिल में थे
अब तो कितनी दूर उनके ही ठिकाने हो गये
ढूंड्ते जो थे बहाने हम से मिलने के लिये
अब न मिलने के भी उन-पे सौ बहाने हो गये
वाह क्या-क्या दे दिया है तूने इस कश्कोल में
आह दर्द-ओ-बेक़रारी ग़म ख़ज़ाने हो गये
अब तो हमको ख़्वाब में भी वो नज़र आता नहीं
"अब उसे देखे हुए कितने ज़माने हो गए"
जब क़बा के बंद खोले उसने महफ़िल में 'अमीर'
जितने थे परवाने सब के सब दिवाने हो गये
"मौलिक व अप्रकाशित"
आदरणीय हिरेन अरविंद जोशी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और ज़र्रा नवाज़ी का शुक्रिया। सादर।
अमीर साहब बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई . गिरह ख़ूब सूरत
आदरणीय अनिल कुमार सिंह जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और ज़र्रा नवाज़ी का शुक्रिया। सादर।
आ. अमीरुद्दीन अमीर साहब,
ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है.
मतले में बेगाने को बिगाने पढने से मिसरा बह्र छोड़ रहा है..
देखिएगा
सादर
धन्यवाद आ. निलेश जी।
//मतले में बेगाने को बिगाने पढने से मिसरा बह्र छोड़ रहा है..//
'जितने अपने/ थे मेरे वो/ सब बिगाने/ हो गये'
2122/. 2122/. 2122/. 212
मिसरा कैसे बह्र छोड़ रहा ज़रा बताइयेगा। सादर।
आ. अमीर साहब,
मैंने जितने भी शेर पढ़े हैं उसमें बेगाने को २२२ पर बांधा गया है ...
आप के पास कोई उदाहरण हो तो साझा करें जिससे मेरा मार्गदर्शन हो सके.
सादर
जनाब निलेश जी, उदाहरण तो भरे पड़े हैं लेकिन उन्हें आप मानेंगे नहीं, लिहाज़ा आपके लिये एक मज़बूत मिसाल पेश करता हूँ,
मशहूर ओ मअरूफ़ शाइर 'जुरअत' क़लंदर बख़्श ( जिनके अनगिनत शागिर्दों में शाह रऊफ़, अहमद सरहिंदी, मिर्ज़ा क़ासिम अली मशहदी, ग़ज़नफ़र अली लखनवी, चाह हुसैन हक़ीक़त और तसद्दुक़ हुसैन वगै़रह थे) की ग़ज़ल के ये अशआर देखें -
कुछ मुँह से देने कह वो बहाने से उठ गया
हर्फ़-ए-सख़ावत आह ज़माने से उठ गया
पाया जो मुज़्तरिब मुझे महफ़िल में तो वहीं
शर्मा के कुछ वो अपने-बेगाने से उठ गया "यहां पर 'बेगाने' को बहाने, ज़माने, बढ़ाने के वज़्न (122) पर लिया गया है।
'जुरअत' हम इस ज़मीन में कहते हैं और शेर
हर-चंद जी सुख़न के बढ़ाने से उठ गया
आ. अमीर साहब,
मुझे उम्मीद थी कि आप किसी क्लासिकल शाएर का हवाला देंगे लेकिन आप उस शाएर का हवाला लाए जिसे मीर तकी मीर ने चूमा चाटी का शाएर और मुसहफ़ी ने छिनाले की शायरी कहा है..जनाब ने उर्दू ग़ज़ल में अशिष्टता, मतवालापन और वासना की जीती-जागती तस्वीरें खींच कर एक अलग रंग पैदा किया।
आप इन्हें पढ़ते हैं और उस्ताद मानते हैं तो मुझे आगे कुछ और नहीं कहना ..
सादर
जनाब निलेश जी,
मुझे भी आपसे यही उम्मीद थी कि आप किसी सूरत नहीं मानेंगे, क्योंकि जवाब मिलने पर आप अपना स्टैंड बदल लेते हैं, आदत के मुताबिक़ यहाँ भी आपने वही किया है -
पहले आपने बताया कि....
//मतले में बेगाने को बिगाने पढने से मिसरा बह्र छोड़ रहा है..//
जब जवाब मिला -
'जितने अपने/ थे मेरे वो/ सब बिगाने/ हो गये'
2122/. 2122/. 2122/. 212
मिसरा कैसे बह्र छोड़ रहा ज़रा बताइयेगा।
तो बता नहीं सके और स्टैंड बदल लिया, और कहा कि-
मैंने जितने भी शेर पढ़े हैं उसमें बेगाने को २२२ पर बांधा गया है ...
आप के पास कोई उदाहरण हो तो साझा करें..
जब आपको उर्दू के मुस्तनद शाइर की मिसाल पेश की गयी -
"पाया जो मुज़्तरिब मुझे महफ़िल में तो वहीं
शर्मा के कुछ वो अपने-बेगाने से उठ गया" ('जुरअत' क़लंदर बख़्श)
तो फिर आप स्टैंड बदल कर कह रहे हैं कि आपको किसी क्लासिकल शाइर की मिसाल पेश की जानी चाहिए थी। और इतना ही नहीं मुसहफ़ी और मीर के हवाले से हुस्न और इश्क़ की शाइरी को चूमा घाटी और छिनाले की शाइरी बता रहे हैं...
जबकि ग़ज़ल के मआनी ही 'हुस्न और इश्क़ की बातें करना' है, और आप ख़ुद भी इस से अछूते नहीं हैं।
मेरे पास और भी क्लासिकल शुअरा की मिसालें हैं मगर आप का क्या भरोसा... आप कह सकते हैं कि फ़लाने शाइर की मिसाल हो तो दो... इसलिए अब बस करता हूँ। सादर।
आ. अमीरुद्दीन अमीर साहब,
मैंने अपना स्टैंड नहीं बदला है .. मैं अब भी मानता हूँ कि बिगाने सहीह नहीं है..इसीलिए आपसे किसी ढंग के शाएर का हवाला माँगा था...आप जिन को ले आए हैं उनकी तारीफ़ रेख्त्रा पर उपलब्ध है, पढ़ लें.. अभी भी आप किसी पाएदार शाएर का उदाहरण देंगे तो मैं मान लूँगा..
वैसे क्लासिकल शाएर का हवाला मांगने कि प्रथा आपने और समर सर ने शुरू की थी जब आप दोनों बेवजह मात्रिक बह्र के नियम आपने हिसाब से चलाना चाह रहे थे.. जिसमें आप हजरात ने मीराजी तक को क्लासिकल नहीं माना था ..
खैर... मीर, दाग, मोमिन, मुसहफ़ी, ग़ालिब, निदा, बशीर बद्र, मजाज़, कैफ़ी, हाली, हाफी, जिन्होंने भी थोड़ी पाएदार शाएरी की हो उनका हवाला मुझे मंज़ूर होगा..
सादर
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