आदरणीय साथियो,
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पंजीरी (लघुकथा):
"पांँच महीनों की रेगुलर फ़ीज़ियोथैरेपी का कमाल है न मम्मा? आज वीडियोकॉल में कितनी ख़ुश दिख रही हो!"
"न बेटा, उससे वैसा कोई ख़ास फ़ायदा नहीं दिखा!"
"तो फ़िर हर रोज़ की तेल मालिश हमजो करवा रहे हैं...उससे न, है न!"
"न बेटे, उससे भी वैसा असर तो नहीं!"
"तो फ़िर हम जो ऑनलाइन प्रोटीन भेजते हैं, उससे?"
'न बाबा, उससे भी वैसा फ़ायदा न मिला, जितना कि एक तोहफ़े से आई ये तब्दीली जो तुम महसूस कर पा रहे हो!"
"तोहफ़ा! कौन से तोहफ़े से? किसने भेजा?"
"कामवाली बाई ने दिया दिल्ली की दिलवाली का!"
"क्या दिया? बताओ न मम्मा!"
"सब कुछ... सभी किस्म की ज़रूरी 'मेवा'... सभी ज़रूरी 'पौष्टिक' चीज़ें... सभी ज़रूरी 'तहज़ीबी थैरेपियाँ'! कामवाली बाई की भाभीजी आईं थीं दिल्ली से! एक हफ़्ते रुकी यहाँ।"
"तो ऐसा क्या तोहफ़ा दे दिया उन्होंने?"
"तुम नहीं समझोगे बेटा? वह सब दिया जो मेरी जिस्मानी और रूहानी सेहत के लिये ज़रूरी था तुम्हारी सब दवाओं और थैरेपी से परे!"
"अच्छा! बता भी तो दो अब मम्मा!"
"कामवाली बाई की पढ़ी-लिखी भाभीजी ही मेरे लिये हर तरह की पंजीरी सा तोहफ़ा साबित हुई बेटा! उसकी 'अपडेटेड सेवा' वाली 'पंजीरी' ही मेरी सेहत और ख़ुशी की इस 'अपडेट' की वज़ह है, बेटा!"
(मौलिक व अप्रकाशित)
आ. भाई शेखशहजाद जी, अभिवादन। अच्छी समसामयिक कथा हुई है। हार्दिक बधाई।
अपनत्व भरा सानिन्ध्य हर दवा से बेहतर उपचार का काम करता है। यही जीवन में उमंग भरता है। इसी मर्म को बखूबी उकेरा है। पुनः बधाई
आदाब। आपने रचना के मर्म व संदेश पर सार्थक टिप्पणी की और हमें प्रोत्साहित किया रचना पटल पर समय देकर। हार्दिक धन्यवाद जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' साहिब।
हार्दिक बधाई आदरणीय शेख़ शहज़ाद जी। बहुत सुन्दर लघुकथा।
उपस्थिति और मेरी हौसला अफ़ज़ाई हेतु हार्दिक धन्यवाद आदरणीय तेजवीर सिंह जी।
शीर्षक - सी ई ओ
अरे शामु बात सुन हरीश ने बहुत प्यार से अपने दोस्त को आवाज़ दी , जो कॉलेज की केंटीन से निकलते वक्त उससे नज़रें चुरा कर क़तरा कर निकला जा रहा था , शामु न चाहते हुए भी मजबूरन मुड़ा अरे बड़े भैया आप , नमस्ते कैसे हैं आप आज कल दिखते ही नहीं , शामू ने बेहद संजीदगी से उनकी तरफ मुड़ते हुए खुशनुमा लहजे में जबाब दिया / अबे ओये !@#$ हरीश ने उसे एक प्यारी सी गाली देते हुए बोला इधर आ तो मैं बताऊं तुझे कल भी जब तू एक हसीना के साथ मोटर साइकल पे रेड लाइट पे रुका था तब भी मैने ही पीछे से काँधे पे थपकी दी थी और तू फटाक से सिग्नल तोड़ के निकल लिया था अबे चकर घिन्नी के / शामु शरमाने का दिखाबा करते हुए धीरे से बोला ओह भाई साहैब वो आप थे मैं समझा रमेश था सो उससे बचने को .... बाकी वाक्य शामू ने अधूरा छोड़ दिया / हरीश ने उसे पास बिठाते हुए एक खूबसूरत सा गिफ्ट पेक निकालते हुए उसे दिया और बोला चल छोड़ तू भी क्या याद करेगा तेरा जन्म दिन है आज और आज तुझे सब माफ़ / खोल के देख इसमें क्या है / शामु खुशी से अरे भाई साहब आप हमेशा मुझे कुछ न कुछ देते ही रहते हो , मैं आपका ये एहसान कैसे चुकाऊंगा / हरीश बोला ये एहसान चुकाने के लिए ही तुझे ये आखरी तोहफा दे रहा हूँ तू कुछ काबिल बन जाए तो मेरा फर्ज़ पूरा हो / शामु ने चुपचाप वो गिफ्ट पेक खोला उसमें एक लिफ़ाफ़ा था उसे खोला पढ़ा और एक दम से उसकी आँखे भीग गई , उसने नीचे झुक कर हरीश के पैर छू लिए फिर उसके सीने से लग कर बोला आपके जैसा इंसान अगर मेरी जिंदगी में न आता तो तो ये शामु किसी काम का न रहता / उस लिफाफे में शामु के लिए हरीश की कंपनी में सी ई ओ की पोस्ट के लिए ऑफर था / हरीश ने बोला मुझे तुझसे अच्छा सी ई ओ और कहाँ मिलेगा पगले और दोनो एक दूसरे के गले लग कर खूब ज़ोर से हँसे /
मौलिक अप्रकाशित
सादर नमस्कार । विषयांतर्गत लेखन का बढिया अभ्यास। हार्दिक बधाई आदरणीयडॉ. अरुण कुमार शास्त्री जी। संवादों को इंवर्टेड कौमाओं में सही तरह प्रस्तुत करना था; वर्तमान स्वरूप में यह लघुप्रसंग या लघुकहानी जैसी भी लग रही है।
आदरणीय - शेख उस्मानी साहिब नमस्कार - जी मानना पड़ेगा आपने सही कहा - यकीनन मैं इनवर्टेड कोमा आदि की बेसिक कमी को स्वीकार करता हूँ उसके बिना दो व्यक्तियों के बीच के संवाद ठीक से चिन्हित नहीं हो पाते हैं - आपका दिल से शुक्रिया जनाब ।
हार्दिक बधाई आदरणीय अरुण कुमार जी। बहुत सुन्दर प्रयास।
आ. भाई अरुण जी, अभिवादन। बहुत सुन्दर लघुकथा हुई है। हार्दिक बधाई।
संयोग - लघुकथा -
सूरज अपने माँ बाप की एक मात्र संतान था। वह भी कितने पापड़ बेलने के बाद हुआ था। शादी के नौ साल बाद हुई औलाद से खुशी का जो माहौल होना चाहिये था, वह नहीं हुआ। क्योंकि सूरज न तो रंग रूप में सुंदर था। और ना ही बौद्धिक स्तर पर तेज था। कुल मिला कर वह कुरूप लगता था। उसमें कोई ऐसी बात नहीं थी, जिस पर माँ बाप गर्व कर सकते।
असली समस्या तो तब हुई जब उसके लिये कोई अपनी लड़की देने को राजी नहीं होता था। धीरे धीरे उम्र भी खिसकती जा रही थी। सूरज लगभग चालीस के पास पहुंच चुका था। इस सब के बावजूद सूरज में एक ही विशेषता थी कि वह एक नेकदिल और सेवा भावी व्यक्तित्व का मालिक था।
अभी तीन दिन पहले उसके जीवन में एक घटना घटी। वह शाम को मंदिर से लौट रहा था । उसने सड़क पर एक बुजुर्ग व्यक्ति को बेहोश पड़े देखा। शायद कोई वाहन टक्कर मार गया था। सड़क सुनसान थी। लहूलुहान व्यक्ति को अगर कोई मदद नहीं मिलती तो कुछ भी अनहोनी होना संभव थी। ऐसा सोचकर सूरज ने तुरंत उस बुजुर्ग को अपने बलिष्ठ हाथों में उठा कर पास के चिकित्सालय में पहुंचाया। चूंकि उस बुजुर्ग के पास कोई ऐसा कागज पत्र नहीं मिला जिससे उसकी पहचान हो सके। अतः चिकित्सालय ने सूरज को ही उसकी देख भाल का उत्तरदायित्व संभला दिया। सूरज भी मन का भोला था अतः पूरे तन, मन और धन से उन बुजुर्ग की सेवा में लगा रहा ।चिकित्सालय का सारा खर्च भी सूरज ने ही वहन किया। चोट गंभीर थी, साथ ही उम्र भी अधिक थी अतः बुजुर्ग तीसरे दिन होश में आ सके।
चिकित्सालय ने बुजुर्ग को उस युवक के सेवा भावी चरित्र का परिचय कराया। बुजुर्ग सारी बात सुनकर दंग हो गये। इसी बीच उनकी एक मात्र पुत्री भी चिकित्सालय आ पहुंची। वह भी पूरी दास्तान सुन कर भौचक्की रह गई। उन बुजुर्ग के परिवार में उस लड़की के अलावा और कोई नहीं था।
उन बुजुर्ग ने सूरज को उसकी सेवा के बदले बहुत कुछ देने की पेशकश की लेकिन सूरज टस से मस नहीं हुआ। वह कुछ भी लेने को तैयार नहीं था।
अचानक आज वही बुजुर्ग अपनी बेटी सहित सूरज के घर आ धमके। सूरज ने उन लोगों को अपने माँ बाप से मिलाया।
"हम लोग एक विशेष प्रयोजन से आपके पास आये हैं। आशा है कि आप हमें निराश नहीं करेंगे। मेरी एक ही संतान है।इसकी माँ बहुत समय पहले गुजर गई। यह इसलिये शादी नहीं कर रही थी कि इसके बाद मेरी देखभाल कौन करेगा। लेकिन सूरज का यह सेवा भावी स्वरूप देख कर इसका हृदय परिवर्तन हो गया है। यदि आप लोग स्वीकार करें तो यह सूरज से शादी करना चाहती है।"
मौलिक एवं अप्रकाशित
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