ग़ज़ल -- 221 2121 1221 212
क़दमों में तेरे ख़ुशियों की इक कहकशाँ रहे
बन जाए गुलसिताँ वो जगह, तू जहाँ रहे
ज़ालिम का ज़ुल्म ख़्वाह सदा बे-अमाँ रहे
पर कोई भी ग़रीब न बे-आशियाँ रहे
आ जाए जिन को देख के आँखों में रौशनी
वो ख़ैर-ख़्वाह दोस्त पुराने कहाँ रहे
हर दम पराए दर्द को समझें हम अपना दर्द
दरिया ख़ुलूसो-मेहर का दिल में रवाँ रहे
काफ़ी नहीं है दिल में फ़लक चूमने का ख़्वाब
परवाज़ हौसलों की भी ता-आसमाँ रहे
मिट जाएँ दिल से हिन्दू मुसलमां के सारे फ़र्क़
मरकज़ जो अपने धर्म का हिन्दोस्ताँ रहे
हर बार बोल उठीं हैं ये चेहरे की झुर्रियाँ
कहने को हम 'दिनेश' भले बे-ज़बाँ रहे
------- दिनेश कुमार
( मौलिक व अप्रकाशित )
Comment
आ. भाई दिनेश जी, अच्छी गजल हुई है। हार्दिक बधाई।
आदरणीय दिनेश बढ़िया ग़ज़ल कही बधाई...
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय समर सर।
जनाब दिनेश कुमार जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें I
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