आदरणीय साथियो,
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" दृष्टिकोण "
वो साप्तहिक हाट बाजार में ले जाने वाले सारे लकड़ी के खिलौने इकठ्ठा करते करते बड़बड़ाता जा रहा था " बड़ी जल्दी कर दी रधिया तूने जाने की अब तेरे इस नासपीटे बेटे को कैसे सम्हालू समझ नहीं आ रहा .
" शिव ! ओ शिव! ,अरे शिवल्या सुन तो जरा ,अरे इस गठरी को ठेले पर धर और चल मेरे साथ ."
" अब कहा जाना है बाबा ? रोज रोज का झंझट है ये . कभी इस गांव, कभी उस गांव . मई ना जाऊ"
"अरे चल बेटा. ऐवे ही पहचान होवे है सब से . पुश्तैनी धंधा है अपना . ये लकड़ी के खिलौने आसपास के गांव में बहुत प्रसिद्ध है . जब छोरिया मायके आवे तो अपने बच्चो को ले आवे . एक खिलौना जरूर से दिलाए उन्हें ."
" बाबा कोई नहीं लेता अब ये खिलौने . पास के शहर के मॉल में देखों कैसे चाबी के ,तो रिमोट से चलने वाले किस्म -क़िस्म के खिलौने मिलते है . अब बच्चो को वे ही भाते (सुहाते) है ." फाइल के कागजात से अपना सर उठाते शिव ने कहा
" अच्छा चल ठीक है .ये तू क्या कागजो में सर घुसाए बैठा है "
" बाबा ! इस कागज़ पर अपना साइन ठोंक दो. मैंने बैंक से कर्ज उठाकर वह एक दूकान खरीद ली है वहाँ. मैं अब आधुनिक खिलौने बेचूँगा. "
"बेटा! ये चमक-धमक ज्यादा दिन की नहीं होती . बहुत ऊंच-नीच चलती है यहाँ बड़े लोगो की . तुम आज नहीं समझोगे .बाबा ने बिना देखे कागज़ पर हस्ताक्षर कर दिए
शिवा कागज लेकर तुरत-फुरत बाहर निकल गया .
बाबा पुकारते रह गए
रमेस्या ने अपना गठ्ठर उठा ठेले पर डाला और चल पड़ा लखेरापुरा गांव की तरफ .
मौलिक व अप्रकाशित
आदाब। हार्दिक स्वागत आपका और आपकी विषयांतर्गत बेहतरीन रचना का। हार्दिक बधाई जाते वर्ष की महत्वपूर्ण गोष्ठी का बढ़िया आग़ाज़ करने हेतु आदरणीया नयना (आरती) कानिटकर जी। सच्चे शुभचिंतक की यही नियति और वही आत्मविश्वास और वही सही दृष्टिकोण। किंतु आज के शिवल्या जैसे युवाओं को कौन समझाये? बढ़िया भाषा शैली और कहन। रचना के आरंभिक वाक्य में शब्द 'वो' और रचना के समापन वाक्य में पात्र नाम 'रमेस्या' के प्रयोग की आवश्यकता पर पुनर्विचार किया जा सकता है। 'बाबा' शब्द किस के लिए है, वो/रमेस्या के लिये या दादाजी के लिये? पात्र नाम संवाद में भी समायोजित होते चलें, तो शायद बेहतर रहेगा या बिना पात्र नाम भी लघुकथा कही जा सकती है मेरे दृष्टिकोण से।
हमें सिखाया जाता है कि इंवर्टेड कौमाओं के आसपास कहाँ स्पेस(खाली जगह) छोड़ना है और कहाँ नहीं। सम्पादन टंकण करते समय हमें ध्यान रखना चाहिए विराम चिह्न टंकण के नियम भी। सादर।
आधार का बंटाधार (लघुकथा) :
दसवीं और बारहवीं की बोर्ड परीक्षाएं नज़दीक थीं। छात्र परीक्षाओं की तैयारी में जुटे और तैयारी कराने के साधन जुटाने की तैयारी करने में विषय-शिक्षक भी जुटे। शिक्षकों के एक सोशल मीडियाई वाट्सएप समूह पर नोट्स और दस्तावेज़ों का आदान-प्रदान ज़ोरों पर था। एक दिन दो शिक्षक समूह के पटल के संदेश पढ़कर या देखकर उन पर अपनी प्रतिक्रियायें कर रहे थे :
"कृपया सम्पूर्ण 'क़्विक रिवीज़न' की पीडीएफ भेजिए एड्यूकेटर्स। बोर्ड परीक्षा के सेम्पल पेपर्स भी भेजिये।" - एक संदेश।
एड्यूकेटर्स ने भेज दिये।
"धन्यवाद। इनकी उत्तरमाला भेजिये एड्यूकेटर्स महोदय।" - दूसरा संदेश।
तुरंत समाधान न हुआ।
फ़िर दूसरे सदस्य ने अनुरोध किये।
उत्तरमालायें प्रेषित की गईं।
"छात्र हर अध्याय के प्रश्नोत्तर मांग रहे हैं। कृपया सम्पूर्ण प्रश्नोत्तर भेजियेगा।" - तीसरा संदेश।
दो-तीन सदस्यों के ऐसे ही अनुरोध पर एड्यूकेटर्स ने समाधान कर दिया। पटल पीडीएफ फाइलों और लिंक्स से भर गया।
दोनों शिक्षकों ने 'लाइक्स' प्रदान किये 'अंगूठे'या 'लव' या 'ताली' की इमोजी चस्पा करते हुए। फ़िर वे एक-दूसरे की शक्ल देखने लगे।
"परीक्षा छात्रों की है या शिक्षकों की?" एक ने दूसरे से व्यंगात्मक मुस्कान के साथ कहा।
"सवाल 'परीक्षा' का नहीं है। सवाल 'चिंता' का है। समूह के सदस्य या एडमिन 'एड्यूकेटर्स' हमारे 'शुभचिंतक' हैं और हम छात्रों के।" दूसरे ने एक आँख दबाते हुए जवाब देते हुए कहा, "शिक्षकों की इज़्ज़त रख लेते हैं ये समूह वरना हम शिक्षकों का और विशेषज्ञों का भी बंटाधार और छात्रों का भी!"
(मौलिक व अप्रकाशित)
(एड्यूकेटर्स= समूह के विषय-विशेषज्ञ एडमिनगण)
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