आदरणीय साथियो,
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पहचान
'मैं सुमन हूँ।' पहले ने बतया।
'.........?'
'मैं करीम।' दूसरे का उत्तर था।
फिर दोनों ने तीसरे अजनबी से पूछा, ' कौन हो तुम? '
'आदमी।' उसने कहा।
' अरे अपना नाम, पता बताओ।' दोनों गुर्राए।
' बताया तो। नहीं समझे? ' तीसरा बेबाकी से बोला।
" मौलिक तथा अप्रकाशित "
आदरणीय मनन कुमार सिंह जी प्रदत्त विषय अनुरूप बहुत बढ़िया लघुकथा हुई है। यह लघुकथा पाठक को गहरे चिंतन की ओर ले जाती है। यह सवाल उठाती है कि हम पहचान को कैसे परिभाषित करते हैं और समाज दूसरों से क्या अपेक्षा करता है। तीसरे अजनबी का जवाब न केवल सुमन और करीम को चुनौती देता है, बल्कि पाठक को भी आत्मनिरीक्षण के लिए प्रेरित करता है। यह लघुकथा हल्के-फुल्के अंदाज़ में गंभीर दार्शनिक सवाल छोड़ जाती है। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर
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