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पिटवा कर छोड़ा

प्रो. सरन घई

 

सामने मेरे घर के महल बना कर छोड़ा,

मेरे हिस्से का भी सूरज खा कर छोड़ा।

बहुत पुकारा मैनें मत छीनो मेरा हक,

मगर जालिमों ने मेरा हक खा कर छोड़ा।

 

सब को धूप, हवा सबको, सबही को पानी,

इसी आस को लिये मर गई बूढ़ी नानी,

फटे चीथड़ों में इक घर में देख जवानी,

फिरसे इक अबला को दाग लगाकर छोड़ा।

 

मचा गुंडई का डंका यों मेरे शहर में,

फ़र्क न बचा कज़ा या दोजख या कि क़हर में,

बस थोड़ा जो मांस बचा था मेरे बदन पर,

कुत्तों जैसे नोच-नोच कर खाकर छोड़ा।

 

ये किस्सा सुनिये, ये बिलकुल नया-नया है,

मेरे चौकीदार ने मुझको लूट लिया है,

बचाखुचा जो माल बचा था मेरी जेब में,

’सरन’ उसे भी थानेदार ने खाकर छोड़ा।

 

 

सुना था मेरे शहर में इक नेता आया है,

धन-दौलत, खाना-कपड़ा, सब कुछ लाया है,

दिया कुछ नहीं, केवल भाषण देकर लगा जो चलने,

हमने भी उसको खासा पिटवाकर छोड़ा।

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Comment

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Comment by Kavita Verma on February 9, 2012 at 10:56pm

bahut khoob ...

Comment by Prof. Saran Ghai on February 5, 2012 at 8:59pm

राज बुंदेली साहब

सहृदय पाठकों से है कविता जगत आबाद,

कैविता की प्रशंसा के लिये अनेकों धन्यवाद।

- प्रो. सरन घई

Comment by कवि - राज बुन्दॆली on February 5, 2012 at 1:54pm

बहुत खूब,,,,,,,,,,,,,,,,,,

Comment by विनोद अनुज on February 4, 2012 at 11:23am

"कूछ लोग मेरे हिस्सेका सूरज भी खा गए" सायद जावेद अख्तर साहब ने लिखा था......


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 29, 2012 at 10:42pm

ये क्या है ???

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