Added by Prof. Saran Ghai on August 27, 2013 at 6:30am — 6 Comments
विश्व हिंदी संस्थान, कनाडा तथा हिंदी की मासिक ई-पत्रिका “प्रयास” के संयुक्त तत्वावधान में भारत के स्वाधीनता दिवस के उपलक्ष्य में एक “राष्ट्रभक्ति…
ContinueAdded by Prof. Saran Ghai on August 7, 2013 at 8:00am — 4 Comments
सुधि पाठकगण,
कनाडा से प्रकाशित हिंदी की अंतर्राष्ट्रीय ई-पत्रिका “प्रयास” का पंचम (जून २०१३) अंक ’पिता’ विशेषांक के रूप में विश्व के कोटि-कोटि पिताओं को पूरे आदर के साथ समर्पित है। हमें पूरा विश्वास है कि समस्त हिंदी प्रेमियों को यह अंक पसंद आयेगा।
आप इस अंक को www.vishvahindisansthan.com/prayas5 पर क्लिक कर के पढ़ सकते हैं। पेज को बड़ा-छोटा करने की सुविधा पेज पर ही उपलब्ध है। पेज की बायीं तरफ़ नीचे (+) व (-) चिन्ह…
ContinueAdded by Prof. Saran Ghai on June 18, 2013 at 5:00am — 9 Comments
“थाम अंगुली जो चलाये वो पिता होता है”
ये पंक्ति तो है हमारी। अब आप इसमें तीन पंक्तियाँ और जोड़ कर चार पंक्तियों का एक मुक्तक बना दीजिये। जिन कवि मित्रों की चार लाइन की रचना हमें पसंद आयेगी, हिंदी की अंतर्राष्ट्रीय ई-पत्रिका “प्रयास” के जून अंक (पिता विशेषांक) में प्रकाशित की जायेंगी। आप अपनी रचना www.vishvahindisansthan.com पर पोस्ट कर सकते हैं या prayaspatrika@gmail.com पर ई-मेल कर सकते हैं…
ContinueAdded by Prof. Saran Ghai on May 30, 2013 at 4:21am — 1 Comment
सुधि पाठकगण,
अंतर्राष्ट्रीय हिंदी ई-पत्रिका “प्रयास” का चतुर्थ अंक ’माँ’ विशेषांक के रूप में विश्व की कोटि-कोटि माओं को पूरे आदर के साथ समर्पित है। हमें पूरा विश्वास है कि समस्त हिंदी प्रेमियों को यह अंक पसंद आयेगा।
आप इस अंक को www.vishvahindisansthan.com/prayas4 पर क्लिक कर के पढ़ सकते हैं। पेज को बड़ा-छोटा करने की सुविधा पेज पर ही उपलब्ध है। पेज की बायीं तरफ़ नीचे एक + चिन्ह वाला लैंस है, उस पर क्लिक करेंगे तो पेज/फ़ांट…
ContinueAdded by Prof. Saran Ghai on May 22, 2013 at 7:55am — 2 Comments
राजस्थान एसोसियेशन आफ़ नार्थ अमेरिका (राना कनाडा) तथा विश्व हिंदी संस्थान के संयुक्त तत्वावधान में रविवार, दिनांक ३१ मार्च, २०१३ को स्थानीय भारत माता मंदिर, गोर रोड़, ब्रेम्प्टन, कनाडा में धूम-धाम से होली का पर्व मनाया गया। लगभग २०० सदस्यों की उपस्थिती में रंगों की बौछार, होली गीतों की झंकार और ’होली है’ की हुंकार से सारा वातावरण होलीमय हो गया।
लगभग ५ घंटे चले इस होली कार्यक्रम का प्रारंभन स्नैक्स व ठंडाई से हुआ। होली गीत, चुटकुले तथा एक-दूसरे को रंगों से सराबोर करने की होड़ ने…
ContinueAdded by Prof. Saran Ghai on April 5, 2013 at 7:47am — 4 Comments
प्रो. सरन घई, संपादक – “प्रयास”, संस्थापक, विश्व हिंदी संस्थान, कनाडा
शादी से पहले हमको कहते थे सब आवारा,
शादी हुई तो वो ही कहने लगे बेचारा।
कुछ हाल यों हुआ है शादी के बाद मेरा,
जैसे गिरा फ़लक से टूटा हुआ सितारा।
सब लोग पूछते हैं दिखता हूँ क्यों दुखी मैं,
कैसे बताऊँ उनको, बीवी ने फिर है मारा।
शादी हुई है जब से, तब से ये हाल मेरा,
जिस ओर खेता नैया, खो जाता वो किनारा।
फिरता था तितलियों…
ContinueAdded by Prof. Saran Ghai on April 4, 2013 at 1:07am — 9 Comments
स्वागत गणतंत्र
प्रो. सरन घई, संस्थापक, विश्व हिंदी संस्थान
स्वागतम सुमधुर नवल प्रभात,
स्वागतम नव गणतंत्र की भोर,
स्वागतम प्रथम भास्कर रश्मि,
स्वागतम पुन:, स्वागतम और।
जगा है अब मन में विश्वास,
कि सपने पूरे होंगे सकल,
कुहुक कुहुकेगी कोयल कूक,
खिलेगा उपवन का हर पोर।
युवा होती जायेगी विजय,
सुगढ़ होता जायेगा तंत्र,
फैलती जायेगी मुस्कान,
विहंसता जायेगा…
ContinueAdded by Prof. Saran Ghai on January 25, 2013 at 8:52am — 8 Comments
दुनिया केवल पैसे की
प्रो. सरन घई, संस्थापक, विश्व हिंदी संस्थान, कनाडा
ऐसे की ना वैसे की, ये दुनिया केवल पैसे की।
ना कीमत है इसे धर्म की,
ना कीमत है इसे कर्म की,
इसको तो परवाह है केवल बिरला, टाटा जैसे की।
ना साधू ना जोगी पुजता,
ना ईश्वर ना अल्ला रुचता,
यहाँ तो केवल जय-जय होती ठन-ठन बजते पैसे की।
समाचार ना लेख सुहाते,
ना गीता ना वेद ही भाते,
यहाँ लोग लिटरेचर पढ़ते फ़िल्मी…
ContinueAdded by Prof. Saran Ghai on January 24, 2013 at 6:51am — 3 Comments
सूखे पेड़ों से मैंने डटकर के जीना सीखा है,
हरे-भरे पेड़ों से मैंने झुककर जीना सीखा है,
मस्त घूमते मेघों ने सिखलाया मुझको देशाटन,
और बरसते मेघों से सब कुछ दे देना सीखा है।
हर दम बहती लहरों से सीखा है सतत् कर्म करना,
रुके हुए पानी से मैंने थम कर जीना सीखा है,
जलती हुई आग से सीखा है जलकर गर्मी देना,
जल की बूंदों से औरों की आग बुझाना सीखा है।
सागर से सीखा है सागर जितना बड़ा हृदय रखना,
धरती से सब की पीड़ा का भार उठाना…
ContinueAdded by Prof. Saran Ghai on February 18, 2012 at 10:06pm — 4 Comments
बहुत सताया हमको अब वो दिन अंधियारे चले गये,
हमको गाली देने वाले गाली खाकर चले गये।
बहुत मचाई गुंडागर्दी तुमने शहरों-गावों में,
बहुत चुभाए कांटे तुमने धूप से जलते पांवों में,
आंधी जब हम लेकर आए तिनके जैसे चले गये।
जाने कितनों को रौंदा-कुचला था अपने पैरों में,
कितनों की इज्जत लूटी थी सामने अपने-गैरों में,
जब हमने हुंकार भरी तो पूंछ दबाकर चले गये।
बहुत विनतियां कीं थीं हमने लाख दुहाई दी तुमको,
रो रो कर…
ContinueAdded by Prof. Saran Ghai on February 15, 2012 at 7:55pm — 1 Comment
आये थे हमसे लड़ने को पर शरमा कर चले गये,
जरा हाथ ही पकड़ा और वो हाथ छुड़ा कर चले गये।
छिप-छिप कर चिलमन से तुमने बहुत इशारे किये प्रिये,
ज़ख्म दिये हर बार जो तुमने सहा किये और सिया किये,
कस कर जरा कलाई थामी दैया कह कर चले गये।
बहुत किया बदनाम ’सरन’ को, सबसे मेरी बातें कीं,
एक एक का हाल बताया हमने जो मुलाकातें कीं,
हमने जब कुछ कहना चाहा, हया दिखा कर चले गये।
खूब पिटाया तुमने हमको यारों-रिश्तेदारों से,
खूब…
ContinueAdded by Prof. Saran Ghai on February 14, 2012 at 5:57am — No Comments
डूबती इक नाव होती आदमी की जिंदगी,
ग़र न होतीं जिंदगी में मुस्कुराती पत्नियाँ।
बेसुरा संगीत होती आदमी की जिंदगी,
ग़र न होतीं जिंदगी में गुनगुनाती पत्नियाँ।
गूंजता अट्टहास होती आदमी की जिंदगी,
ग़र न होतीं जिंदगी में खिलखिलाती पत्नियाँ।
मौन सा आकाश होती आदमी की जिंदगी,…
ContinueAdded by Prof. Saran Ghai on February 7, 2012 at 4:42am — 11 Comments
भगवन कहां छिपे हो मुझको काल करो,
काल नहीं ना सही, प्रभु मिस काल करो ।
इक पल में ही काल रिटर्न करूँगा मैं,
किसी बात पर प्रभु ना ध्यान धरूँगा मैं,
अब तो मिलने की प्रभु कोई चाल करो। (भगवन कहां छिपे …)
अगर लाँग डिस्टेंस है तो कुछ बात नहीं,
चैटिंग का पैकेज तो मंहगी बात नहीं,
डेटिंग, चैटिंग कुछ तो सूरत-ए-हाल करो। (भगवन कहां छिपे…)
फ़ोन नहीं तो इंटरनैट पर आ जाओ,
स्काइप पे आकर प्रभुवर दरश दिखा…
ContinueAdded by Prof. Saran Ghai on February 4, 2012 at 8:00pm — 3 Comments
पिटवा कर छोड़ा
प्रो. सरन घई
सामने मेरे घर के महल बना कर छोड़ा,
मेरे हिस्से का भी सूरज खा कर छोड़ा।
बहुत पुकारा मैनें मत छीनो मेरा हक,
मगर जालिमों ने मेरा हक खा कर छोड़ा।
सब को धूप, हवा सबको, सबही को पानी,
इसी आस को लिये मर गई बूढ़ी नानी,
फटे चीथड़ों में इक घर में देख जवानी,
फिरसे इक अबला को दाग लगाकर छोड़ा।
मचा गुंडई का डंका यों मेरे शहर में,
फ़र्क न बचा कज़ा या दोजख या कि क़हर…
ContinueAdded by Prof. Saran Ghai on December 27, 2011 at 10:05pm — 5 Comments
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