चित्र से काव्य तक प्रतियोगिता अंक -15 की सभी रचनाएँ एक साथ
आदरणीय
श्री अलबेला खत्री
भारतीय छन्द घनाक्षरी
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सागर के तट हँसे
बाला नटखट कहे
पापा झटपट मुझे गोद में उठाइये
सुन्दर सुदृश्य हूँ मैं,
देश का भविष्य हूँ मैं,
कुछ तो अवश्य हूँ मैं, मम्मी को बताइये
देश के करूंगी काम,
जग में करूंगी नाम,
सुजलाम सुफलाम, संग मेरे गाइए
तम को मिटाऊँगी मैं,
कुहासा हटाऊँगी मैं,
उजियाला लाऊँगी मैं, मुझको पढ़ाइये
छंद मत्तगयन्द सवैया
बांह पसार खड़ी तट ऊपर बाबुल की बिटिया मतवारी
सागर की लहरों पर ख़ूब धमाल मचा कर धूल धुसारी
मोहक और मनोहर सूरतिया पर मात-पिता बलिहारी
शैशव शोभ रहा, मुखमण्डल की छवि लागत है अति प्यारी
भारतीय छंद कुंडलिया
मम्मी की मैं लाड़ली, बाबुल की मैं जान
मैं देहरी की महक हूँ, आँगन की मुस्कान
आँगन की मुस्कान, छमाछम करती डोलूं
आनन्दित हों लोग, मैं जब तुतलाकर बोलूं
लाइन लगा कर बैठे हैं सब लेने चुम्मी
किन्तु किसी को पास न आने देगी मम्मी
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श्री दिलबाग विर्क
कुंड़लिया
ये बचपन मासूम -सा , है ईश्वर का रूप
प्यारी-सी मुस्कान है , ज्यों सर्दी की धूप |
ज्यों सर्दी की धूप , सुहाती हमको हर पल
लेती है मन मोह , सदा ही चितवन चंचल |
लेकर इनको गोद , ख़ुशी से झूम उठे मन
यही दुआ है विर्क , रहे हँसता ये बचपन |
दोहे
बाँहे फैलाए तुझे , बिटिया रही पुकार
तुम जालिम बनना नहीं , मांगे हमसे प्यार |
निश्छल , मोहक , पाक है , देखो ये मुस्कान
भूलें हमको गम सभी , जाएं जीत जहान |
क्यों मारो तुम गर्भ में , बिटिया घर की शान
ये चिड़िया-सी चहककर , करती दूर थकान |
बिटिया कोहेनूर है , फैला रही प्रकाश
धरती है जन्नत बनी , पुलकित है आकाश |
तुम बेटी के जन्म पर , होना नहीं उदास
गले मिले जब दौडकर , मिट जाते सब त्रास |
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(प्रतियोगिता से बाहर)
श्री अरुण कुमार निगम
आल्हा छंद –
( प्रत्येक चरण में 16,15 पर यति देकर 31 मात्रायें, अंत में गुरु लघु )
नहीं बालिका जान मुझे तू , मैं हूँ माता का अवतार |
सात समुंदर हैं आँखों में , मेरी मुट्ठी में संसार ||
मैंने तुझको जन्म दिया है , बहुत लुटाये हैं उपहार |
वन उपवन फल सुमन सुवासित, निर्मल नीर नदी की धार ||
स्वाद भरे अन तिलहन दलहन , सूखे मेवों का भंडार |
हरी - भरी सब्जी - तरकारी , जिनमें उर्जा भरी अपार ||
प्राणदायिनी शुद्ध हवा से , बाँधे हैं श्वाँसों के तार |
तन - तम्बूरा तब ही तेरा , करता मधुर- मधुर झंकार ||
हाथी घोड़े ऊँट दिये हैं , सदियों से तू हुआ सवार |
मातृरूप में गोधन पाया , जिसकी महिमा अपरम्पार ||
वन - औषधि की कमी नहीं है , अगर कभी तू हो बीमार |
सारे साधन पास तिहारे , कर लेना अपना उपचार ||
सूर्य चंद्र नक्षत्र धरा सब , तुझसे करते लाड़-दुलार |
बादल - बिजली धूप - छाँव ने, तुझ पर खूब लुटाया प्यार ||
गर्मी वर्षा और शीत ने , दी तुझको उप-ऋतुयें चार |
शरद शिशिर हेमंत साथ में , तूने पाई बसंत-बहार ||
सतयुग त्रेता द्वापर तक थे , तेरे कितने उच्च विचार |
कलियुग में क्यों फिर गई बुद्धि , आतुर करने को संहार ||
नदियों को दूषित कर डाला , कचरा मैला डाल हजार |
इस पर भी मन नहीं भरा तो,जल स्त्रोतों पर किया प्रहार ||
जहर मिला कर खाद बनाई , बंजर हुये खेत और खार |
अपने हाथों बंद किये हैं , अनपूर्णा के सारे द्वार ||
धूल - धुँआ सँग गैस विषैली , घुली हवा में है भरमार |
कैसे भला साँस ले प्राणी , शुद्ध हवा ही प्राणाधार ||
वन काटे भू - टुकड़े छाँटे , करता धरती का व्यापार |
भूमिहीन अपनों को करता , तेरा कैसे हो उद्धार ||
दूध पिलाया जिन गायों ने , उनकी गरदन चली कटार |
रिश्ते - नाते भूल गई सब , तेरे हाथों की तलवार ||
वन्य-जीव की नस्ल मिटा दी, खुद को समझ रहा अवतार |
मूक-जीव की आहें कल को , राख करेंगी बन अंगार ||
मौसम चलता था अनुशासित, उस पर भी कर बैठा वार |
ऋतुयें सारी बाँझ हो गईं , रोती हैं बेबस लाचार ||
हत्या की कन्या - भ्रूणों की ,बेटी पर क्यों अत्याचार |
अहंकार के मद में भूला , बिन बेटी कैसा परिवार ||
अभी वक़्त है, बदल इरादे , कर अपनी गलती स्वीकार |
पंच-तत्व से क्षमा मांग ले , कर नव-जीवन का श्रृंगार ||
वरना पीढ़ी दर पीढ़ी तू , कोसा जायेगा हर बार |
अर्पण - तर्पण कौन करेगा , नहीं बचेगा जब संसार ||
आज तुझे समझाने आई , करके सात समुंदर पार |
फिर मत कहना ना समझाया , बस इतने मेरे उद्गार ||
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श्री उमाशंकर मिश्रा
दोहे
निकली बन गुड़िया नई, कन्या रूप अनूप|
लहर संग अठखेलियाँ, जननी धरा स्वरुप||
दोऊ कर माटी धरे, वसुधा खेले खेल|
कहती हँसकर थाम लो, टूटे ना यह बेल||
कन्या भ्रूण न मारिये, बिन नारी जग ठूँट|
जीवन रस खो जायगा, पीना अश्रु के घूँट||
आदिशक्ति मै मातृका, ले बचपन का बोध|
आऊँगी उड़ती हुई, मत डालो अवरोध||
आँचल में भर लीजिए, मत कीजे व्यापार|
खुशियों से पूरित रहे, सारा जग संसार||
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अम्बरीष श्रीवास्तव
(प्रतियोगिता से अलग)
छंद कुंडलिया
मुस्काती नन्ही परी, दिल पर उसका राज.
बांह पसारे आ रही, पुलकित सागर आज.
पुलकित सागर आज, हृदय ले प्रीति- हिलोरे.
आये पीहर छोड़, हाथ कुछ रेत बटोरे.
अम्बरीष दें स्नेह, यही खुशियों की थाती.
ऐसे हों सत्कर्म, रहे बेटी मुस्काती..
(प्रतियोगिता से अलग)
छंद त्रिभंगी:
मात्रा (१०,८,८,६) अंत में गुरु (२)
द्वै बांह पसारति, इत उत धावति, बाल रूप यह, बड़भागी.
अंतर मुसकावति, दन्त दिखावति, मधुर नेह जिमि, रस पागी.
सागर अति हर्षित, प्रेमहिं वर्षित, परम सुखी अति, जिमि संता.
हम सब बलिहारी, राज दुलारी, आज कृपा सब, भगवंता..
(प्रतियोगिता से अलग)
बरवै छंद
(१२+ ७) मात्रा अंत में पताका या गुरु लघु
पंख देखिए इसके, भरे उड़ान.
नन्हीं मुन्नी बेटी, अपनी जान..
नदिया सी है चंचल, इसकी चाल.
इसको पाकर सागर, मालामाल..
मुठ्ठी में है धारे, पावन रेत.
लहराते सागर का, मोती श्वेत..
जिस घर में बेटी से, होता स्नेह.
वह ही होता सबसे, सुन्दर गेह..
‘योगी’‘बागी’‘अम्बर’, चूमें माथ
‘सौरभ’ ‘अलबेला लें, गोदी साथ..
घर में आयी बेटी, सब दें प्यार.
ओबीओ की महिमा, अपरम्पार..
--अम्बरीष श्रीवास्तव
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आलोक सीतापुरी
(प्रतियोगिता से अलग)
कुंडलिया छंद
हरती धरती की तृषा, घूम-घूम हर खेत|
वर्षा सागर की सुता, भर मुट्ठी में रेत|
भर मुट्ठी में रेत, पवन अभिमंत्रित बाला|
हरी-भरी कर जाय, धरा बन नीरद माला|
कहें सुकवि आलोक, नदी बन कल-कल करती|
पुनि सागर से मिले, प्यास धरती की हरती||
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श्री संजय मिश्र ‘हबीब’
छंद छप्पय
//अद्भुत दृश्य अनूप, उमंगें लहराती हैं.
एक प्राण त्रयरूप, लिए प्रकृति आती है.
माता भगिनी भ्रात, धरा बिटिया औ सागर.
मन आँगन में प्रात, कुहुकती कोयल आकार.
सोंधी नटखट किलकारियाँ, प्रभु की यह सौगात है.
सच्ची बिन बिटिया जगत यह , अमावस्य की रात है..//
(प्रतियोगिता से पृथक)
दोहे
अंतर में महसूसिये, अद्भुत अति आनंद।
जो मैं देखूँ, देखिये, करके अँखियाँ बंद॥
मुट्ठी में सपने लिए, भाग रही दिन रात।
जीवन मरु हरियारती, बन निर्झर, परपात॥
दोनों की अठखेलियाँ, कर जाती हैं दंग।
सागर बिटिया देखिये, लिए एक सा रंग॥
कदमों में धरती सदा, बाहों में आकाश।
लहरों पर डालें नहीं, निज स्वारथ की पाश॥
सागर मंथन कर रहीं, सुगम नहीं गुणगान।
अमरित बांटे बेटियाँ, स्वयं करे विषपान॥
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कुण्डलिया
मन पुलकित है शुद्ध है, होता भाव विभोर।
सागर तट पर ले रहा, सागर और हिलोर॥
सागर और हिलोर, मुदित मन मुसकाती है।
कितना मोहक रूप, पुलक रस बिखराती है।
सम्मोहित हैं नैन, सजी वह बनकर अंजन।
बिटिया मेरी पुष्प, खिली बगिया मेरा मन॥
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श्री प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
मूल दोहे
बालक जनम लेत जबहि घर मा मंगल छाय
बेटी जनमत जानतहि मात काहे लजाय
नारी तन का अंश है नारी मन न सुहाय
बगैर युगल कस वंश बढे है क्या दूजा उपाय
नारी कोमल भावना अनन्त ममता छांव
स्वागत कीजे आपका मिले शांति विश्राम
पुरुष पुरुषार्थ है नारी कुल का मान
दोनों के सम मिलन से होत जगत कल्यान
नारी शक्ति मात की नारी है निष्काम
नारी सदा पूजयति बनते बिगड़े काम
बाला दौड़े रेत पे नन्हे पायें उठाय
जल न जाएँ पैर कहीं गिरे न ठोकर खाय
कोमल भावना युक्त है बाला का संसार
आगे उसका भाग्य है फूल मिलें या खार
प्रतियोगिता के दौरान पाठकों के सुझाव के अनुसार संशोधित रूप
(संशोधित रूप प्रतियोगिता के बाहर रहेगा)
जन्म लेत बालक जबहिं, घर मा मंगल छाय
बेटी जनमत जानतहि, काहे मात लजाय
नारी तन का अंश है, नारी मन न सुहाय.
बिना युगल नहिं वंश हो, दूजा कहाँ उपाय??
नारी कोमल भावना, ममता छांव अनन्त.
नारी स्वागत जो करें, शान्तिप्रदायक संत.
पुरुष रूप पुरुषार्थी, नारी कुल का मान
दोनों के सम मेल से, होता जग कल्यान
मातृशक्ति नारी यहाँ, नारी है निष्काम.
पूजें जब-जब नारियाँ, बनते बिगड़े काम.
बाला दौड़े रेत पे, नन्हे पांव उठाय.
कहीं जलें नहिं पांव ये, गिरे न ठोकर खाय.
कोमल भावों से भरा, बाला का संसार.
आगे उसका भाग्य है, पुष्प मिलें या खार.
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श्री संदीप पटेल "दीप"
||"शुद्धगा/विधाता छंद"||
(२८ मात्रा १ २ २ २ १ २ २ २ १ २ २ २ १ २ २ २ )
(विद्वानों के अनुसार विधाता छंद या शुद्धगा छंद के तीसरे पद को मुक्त न करके ठीक उसी तरह इसे तुकांत करते हुए इसमें भी काफिया और रदीफ़ का निर्वहन करना चाहिए था परन्तु यहाँ ऐसा नहीं है अतः इस स्थिति में इसे शुद्धगा छंद के बजाय बहरे हज़ज़ मुसम्मन सालिम की श्रेणी में रखने की संस्तुति की जाती है )
बड़ी मासूम सी है खिलखिलाता प्यार लगती है
मिटे हर दर्द जीवन का देख उपचार लगती है
छुपा खुशबू रखी है रेत सी इन नर्म हाथों में
समंदर को समेटे प्रेम का इज़हार लगती है
खुदा ने दे दिया जैसे हसीं उपहार लगती है
प्रिये बेटी मुझे हर एक का आधार लगती है
जहां में हैं मगर इंसान ऐसे भी अजी सुन लो
मुझे जो फूल लगती है किसी को खार लगती है
वही बन कर बहन बेटी करे उपकार लगती है
वही पत्नी बने तो प्रेम मय व्यवहार लगती है
यही जब माँ बने तो बन गुरु सब कुछ सिखा जाती
वही गढ़ती घड़े कच्चे कुशल कुम्हार लगती है
बहाती प्रेम पावन नीर गंगा-धार लगती है
रसों का और छंदों का मुझे ये सार लगती है
बिना इसके सभी रसहीन लगते हैं यहाँ मुझको
लिखी मेरी यही कविता मधुर रसधार लगती है
गजब हैं लोग दुनिया के जिसे ये भार लगती है
अजी ये बेल फूलों की कटीला तार लगती है
किसी ने कह दिया अबला किसी ने कह दिया कंटक
ज़माना भूल जाता है यही संसार लगती है
दुर्मिल सवैया
अति सुन्दर कंचन देह दिखे, चमके रवि-जात लगे बिटिया
बहु पूजित रूप अनूप लिए, धरनी पर मात लगे बिटिया
बस हाथ परी से उठा कर वो, छवि देख अजात लगे बिटिया
हर पीर मिटे मुख देख जरा, हँस ले मधुमात लगे बिटिया
मत्तगयन्द सवैया
हाथ पसार अचंभित होकर, सूरज मांग पड़ी जब बेटी
सागर के तट खेल छपाछप, बिम्ब निहार हंसी तब बेटी
प्रेम पगी रसधार लगे वह , चंचल बेन करे जब बेटी
पीर भरे मन कुंठित होकर, चंचल नैन भरे जब बेटी
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(प्रतियोगिता से बाहर)
श्री संजय मिश्रा 'हबीब'
"रूपमाला छंद"
एक नन्हीं सी परी का, देखिये आमोद।
बांह फैला कर पुकारे, लो मुझे लो गोद।
साथ लहरें ले चली वह, दौड़ती निर्बाध।
देख कर ही गोद लेने, की उमड़ती साध।
ये जिधर भी पग उठाती, खूब बिखरे रंग।
एक अदभुत सी प्रभा है, बेटियों के संग।
बेटियाँ धूरी जगत की, सृष्टि की आधार।
बेटियों से जिंदगी है, सांसमय संसार।
बेटियाँ सागर धरा हैं, बेटियाँ आकाश।
बेटियाँ ही जिंदगी में, घोलतीं उल्लास॥
बेटियाँ चंचल हवायेँ, कोयलों की तान।
बेटियाँ पावन ऋचायेँ, वेद की पहचान॥
बेटियाँ उज्ज्वल सदा ही, शुभ्र जैसे हंस।
बेटियाँ राधा सिया की, हैं सदा से अंश।
बेटियाँ किल्कारियाँ हैं, हर्ष की बुनियाद।
बेटियाँ पितु मात की है, ईश से सम्वाद॥
आज लेकिन देखिये तो, वह खड़ी लाचार।
बेटियों पर कर रहे हम, घोर अत्याचार।
थाम खुद अपने करों में, ही प्रलय की डोर!
बेटियों से मोड कर मुख, जा रहे किस ओर?
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श्री उमा शंकर मिश्रा
मत्तगयन्द /मालती सवैया
सात समुंदर पार करै , ममता धरि लोचन देखन चाहीं
भू पर है किस हाल जियै , कन्या तनुजा जननी जग माहीं
माँ धरती मिट्टी धरि हाथन , जीवन माटि यही समुझाहीं
या जग में जननी धरनी सम, नारि बिना जग जीवन नाहीं ||
माँ जग माहि सनेस बिखेरति , बाँह लियौ धरि पूतन नाई
हे सुत कालि न दास बनौ , जिन डारि चढ़ै वहि काटि गिराई
हूँ तनुजा कन्या वनिता , जननी समुहै जग को उपजाई
बैंहन पंख बना उड़िहौं , सहि ना सकिहौ सुत मोरि जुदाई ||
घनाक्षरी
पीछे खड़ा मकान, उफनता सिंधु दांये
ऊपर खुला आसमां, वसुधा का दान है|
उड़ कर आई परी, धरी खुशियाँ उड़ाती
बंद हाथों में ले प्रश्न, दे प्यारी मुश्कान है||
माता भारती की पीड़ा, दूर करने का बीड़ा
चंचलता उछालती, देवी अवतार है|
मुझे गोद में उठाओ,बाँह अपने लगाओ
धनवैभव लुटाती, ये लक्ष्मी समान है||
प्रतियोगिता के दौरान पाठकों के सुझाव के अनुसार संशोधित रूप
(संशोधित रूप प्रतियोगिता के बाहर रहेगा)
पीछे खड़ा है मकान, उफने जो सिंधु दांये
शीश खुला आसमान , वसुधा का दान है|
उड़-उड़ आई परी, खुशियाँ ले आई परी
बंद हाथों में है प्रश्न, प्यारी मुसकान है||
माता भारती की पीड़ा, दूर करने का बीड़ा
नदिया सी बाँटे प्यार, देवी अवतार है|
गोद में इसे उठाओ, सीने से इसे लगाओ
दोनों हाथों से लुटाती, लछमी समान है||
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श्री अविनाश एस बागडे
'कवित्त'अथवा मनहरण .
1..
मन भी हूँ प्राण भी हूँ.
मानवी-संतान भी हूँ
निश्छल मुस्कान भी हूँ,आप भी मुस्काइये.
--
बहिंयां में भर लूँगी,
साथ-सबके खेलूंगी.
पप्पी मै ले ही लूंगी,गाल जरा लाइए.
--
आपको ये ज्ञान नहीं,
या इसपे ध्यान नहीं.
लब पे मुस्कान नहीं,उन्हें भी हंसाइए .
--
हो रहें हैं भ्रूण-खून!
कैसा ये अपशकुन!!
जग ना हो जाये सून,हमें अब बचाइए.
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श्रीमती राजेश कुमारी जी
कुंडली
मात -पिता की लाडली ,देखो दौड़ी आय
सागर तट की रेणुका ,मुट्ठी में भर लाय
मुट्ठी में भर लाय , नीचे रज गुदगुदाती
गर्वित होती देख ,माता -पिता की छाती
बांह खोले आये ,जैसे हो अपराजिता
नन्ही सी है जान ,निछावर हैं मात –पिता..
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Tags:
आदरणीय अम्बरीष भाईजी, काश आप आयोजन सह प्रतियोगिता के सफल संचालक और वर्तमान प्रबन्धन समिति के सदस्य न होते.. मेरा चयन-प्रयास अवश्य ही सरल, सहज और स्पष्ट होता. हम आप.. आप.. और आप कह कर सादर धन्यवाद कह लेते .. :-)))))
प्रविष्टियों को संगृहीत करने के दुरूह कार्य की सफल सम्पन्नता के लिये सादर बधाइयाँ.
धन्यवाद आदरणीय सौरभ जी, आप का हर प्रयास सदैव ही अत्यंत सरल, सहज, और सुस्पष्ट ही तो होता है ... :-))))))
जय ओ बी ओ |
वाह वाह वाह, आयोजन की सभी रचनायों को पुन: पढ़कर आनंद आ गया आद अम्बरीष भाई जी. इस महती कार्य के लिए साधुवाद स्वीकारें.
स्वागत है आदरणीय प्रधान संपादक जी! इस स्नेह के लिए आपका हार्दिक आभार | जय ओ बी ओ |
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