ललउ काका आजू खीस में आग भउरा भईल रहन, आपन बड़का लईका के मन भर गाजत रहन, हमरा बात ना बुझाइल त तनी देर उनुका दुवारी पर खाड़ होके सुने लगनी, तब समझ में बात आइल | दरअसल ललउ काका के पोती वंदना जवन एह साल इंटर में पढ़त बिया वोके उ स्कुल से आवत घरी वोकरे स्कुल में पढ़े वाला एगो लईका से बतियावत देख लिहले रहन | बात हमरा बुझा गइल रहे, काका के शांत करावे खातिर हम उनुका से कहनी कि चली काका मंदिर पर पंडी जी तोहरा के बोलावत बाड़न...आ उनुका के लिया के मंदिर के चउतरा पर बईठा दिहनी, फेनु चाह पीया के उनुका से कहनी, "का बात बा काका, काहे खिसियात रहल ह ?"
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परर काकाआ आ, अररर पररर छोड़ बबुआ हमनी के दुनिया देखले बानी जा, जब लईका १८ साल में वोट देके देश चलवा सकेला त घर ना ?
आदरणीय गणेश जी आपका यह कटाक्ष भरा आलेख तकरीबन सारा ही समझ में आ गया है सामयिक व्यंग्य खाप पंचायत को लेकर बहुत ही रोचक अंदाज में लिखा है और ये अंतिम पंक्ति तो कटाक्ष की पराकाष्ठा है बहुत ही मजा आया पढ़ कर बहुत- बहुत बधाई आपको इस शानदार व्यंगात्मक आलेख के लिए
आदरणीया राजेश कुमारी जी, व्यंग लेखन पर यह मेरा पहला प्रयास है, यदि आप तक सन्देश पहुँच रहा है तो मेरा लेखन सफल हुआ , बहुत बहुत आभार आपका |
बड़ी दम बा.... खासकर हेमें, त अऊरी, 'अररर पररर छोड़ बबुआ हमनी के दुनिया देखले बानी जा, जब लईका १८ साल में वोट देके देश चलवा सकेला त घर ना ? '............. चापि के बधाई लीं !
सराहना खातिर बहुत बहुत आभार पियूष भाई |
बात त बरियार कइलऽ, ए गनेस भाई. बुला ई कुल्हि बतिया हमार बियहवा के घरिया निकहा कहाइल होखित. उहँ-उहँ.. आहियाहि.. !!
मज़ाक एक ओरे, आजके हालत आ हालात प बहुत संवेदनशील कलम चलल बा, गनेस भाई. हमरा ओरि से एह तलफ़त सवालन खातिर खूब बधाई चहुँपो.. .
सौरभ भईया, सराहे खातिर राउर धन्यवाद, कही ना कही इ व्यंग लिखे के पीछे शुभ्रान्शुओ बाबू के प्रेरणा बा, व्यंग लेखन पर इ पहिलुका प्रयास बा, पुनः आभार |
काहे न
बधाई सर जी
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