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खींचा-खींची कर रहे, इक दूजे की चीज ।

सोम सँभाले स्वयं सब, भूमि रही है खीज ।

भूमि रही है खीज, सभी को रखे पकड़ के ।

पर वारिधि सुत वारि, लफंगा बढ़ा अकड़ के ।

चाह चाँदनी चूम, हरकतें बेहद नीची ।

रत्नाकर आवेश, रोज हो खींचा खींची ।।

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Comment by रविकर on November 8, 2012 at 8:40am

आभार आदरणीय सौरभ जी |
आभार आदरेया डा. प्राची जी ||


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 8, 2012 at 7:53am

एक नया ही नज़रिया है इस कुण्डलिया का, इस नयेपन के लिए बधाई आ. रविकर जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 7, 2012 at 6:53pm

रविकर भाई रच रहे, ग़ज़ब के चमत्कार
खेला चाहो देखना, शब्दों से तुम यार
शब्दों से तुम यार, शब्द वे कूँच चबाते
लफ़ंगा, पाजी, दुष्ट, आदि भी आम बताते
हुई व्यंजना खूब, कथ्य भी है कुछ हटकर
स्वीकारें आदाब, छंद पर भाई रविकर 

सादर

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