मत्तगयंद सवैया पर हम जाकारी प्राप्त कर चुके हैं. जिसके अनसार सात भगण (भानस, ऽ।। ) के पश्चात दो गुरु का संयोग मत्तगयंद सवैया का कारण बनता है.
इस विन्यास के गिर्द हम एक और परिवर्तन देखते हैं. जिसके अनुसार इस विन्यास के अंतिम दो गुरुओं में से सबसे बाद के गुरु को लघु लघु कर दिया जाय तो आठ भगण की स्थिति बन जाती है. यह विन्यास ही किरीट सवैया है.
अर्थात किरीट सवैया = भगण X 8
यानि, भगण भगण भगण भगण भगण भगण भगण भगण अर्थात 24 वर्ण का एक पद
उदाहरण के रूप में हम रसखान की अमर कृति को लेते हैं -
मानुष हों तो वही रसखान, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तौ कहा बसु मेरौ, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन।।
पाहन हौं तौ वही गिरि कौ जु धर्यौ कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तो बसेरौं नित, कालिंदी-कूल कदंब की डारन।।
प्रथम पद -
मानुष (गुरु लघु लघु ) / हों तो व (गुरु लघु लघु ) / ही रस (गुरु लघु लघु ) / खान ब (गुरु लघु लघु ) /
<---------1-------------> <------------2--------------> <---------3--------------> <--------------4------------>
सौं ब्रज (गुरु लघु लघु ) / गोकुल (गुरु लघु लघु ) / गाँव के (गुरु लघु लघु ) / ग्वारन (गुरु लघु लघु )
<-----------5--------------> <------------6------------> <----------7-------------> <----------8--------------->
उपरोक्त विन्यास में बोल्ड अक्षर पर स्वराघात कम होने से वे गुरु दिखने के बावज़ूद लघु की तरह प्रयुक्त हुए हैं. इस परिक्रिया पर मत्तगयंद सवैया के पाठ में विशद चर्चा हई है.
ज्ञातव्य :
प्रस्तुत आलेख प्राप्त जानकारी और उपलब्ध साहित्य पर आधारित है.
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सादर, सही कहा था आपने मत्तगयन्द सवैया पर कि अंत में दो गुरु ही रहने दें गुरु लघु लघु से उलझन होगी. अब समझ आ रहा है कि दो लघु से यह एक भगण और बनकर किरीट सवैया हो जाता है. अर्थात कवि रसखान जी कि इस पूर्ण रचना में मत्तगयन्द और किरीट दोनों ही सवैया का उपयोग हुआ लगता है. धूरि भरे अति सोभित......... के अंत में दो गुरु लिए हैं. क्या मै ठीक समझ पा रहा हूँ?कृपया त्रुटी हो तो प्रकाश डालें.सादर.
उपरोक्त छंद की कुल चार पंक्तियाँ (चार पद) हैं. चार पदों का ही सवैया छंद होता है. आपने रसखान के दूसरे छंद का उद्धरण दिया है. आप उसे उद्धृत भी कर देते तो पाठकों के लिये सुविधा रहती.
मान्य कवियों --जैसे कि केशव, तुलसी, नरोत्तम, देव आदि) ने पाठकों के समक्ष छंद-कौतुक के लिए या विषय संप्रेषण में सरसता के लिए या अपने ज्ञान-प्रदर्शन के लिए मिश्रित सवैयों (उपजाति सवैयों) का विशद प्रयोग किया है. इसकी चर्चा हमने सवैया के लेख में भी की है. केशव और तुलसी ने तो ऐसे प्रयोग भरपूर किये हैं. किन्तु, ऐसे प्रयोग शास्त्रीयता के लिहाज से कभी मान्य नहीं हैं. भले प्रकाण्ड विद्वानों ने ही ऐसे कौतुक क्यों न किये हों.
भाई, हमें तो इस तरह के किसी प्रयोग से पूरी तरह से बचना चाहिए, या, हम इस तरह की कलाबाजियों से अभी स्वयं को बचायें ही. हा हा हा.. .
सादर,
जी हाँ मिश्रित सवैया भी कई जगह तुलसी दास जी कि कृतियों में पढ़ा है आपने इस पर जो जानकारी दी है वह मेरे मन के प्रश्न का उत्तर स्वरुप ही है. मैने चूँकि अपने शैक्षणिक काल में कवि रसखान जी के छंद एक कविता के रुप में पढ़े हैं इसलिए इसे एक रचना कह डाला, अच्छा ही हुआ मुझे ये भी जानकारी हुई की हर छंद एक पूर्ण रचना है. आपके मतानुसार मै कवि के उक्त अधुरे छंद को यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ जो मत्तगयन्द सवैया है और किरीट सवैया से काफी समानता रखता है. सादर.
धूरि भरे अति शोभित श्याम जू,तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी,
खेलत खात फिरै अँगना, पग पैंजनिया कटि पीरी कछौटी/
वा छवि को रसखान विलोकत,वारत काम कलानिधि कोटी,
काग के भाग कहा कहिए ,हरि हाथ सौं ले गयो माखन रोटी//
आप बात को तथ्यात्मक रूप से समझ रहे हैं, आदरणीय अशोकभाई.
आप प्रदत्त छंद में गणों की गणना करें तो आपको सात भगण की आवृति के अंत में दो गुरु वर्ण दिखेंगे. यह स्पष्ट करता है कि आप द्वारा साझा किया गया रसखान विरचित छंद मत्तगयंद सवैया है.
इस छंद के प्रथम पद का विन्यास -
धूरि भ / रे अति / शोभित / श्याम जू / तैसी ब / नी सिर / सुन्दर / चोटी
(सात भगण और आखिर में गुरु गुरु)
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