अम्बरीष श्रीवास्तव
(प्रतियोगिता से अलग)
कुछ दोहे
जहाँ भूख ही भूख हो, सड़ता वहाँ अनाज.
लगी फफूंदी तंत्र में, क्यों गरीब पर गाज..
हाड़तोड़ मेहनत हुई, देख कहाँ बेकार.
अन्न सड़ा बँट जायगा, सोती जो सरकार..
जी भर सेवन कीजिये, रहें सदा आबाद.
जोरदार सेहत बने, लें मशरूमी स्वाद..
राम भरोसे काम हो, बेहतर और सटीक.
भंडारण की सीखिये, यह नवीन तकनीक..
चट्टे क्योंकर हैं सड़े, बेहतर मौन जवाब.
लापरवाही में मजा, होगा कहाँ हिसाब..
है अनमोल अनाज पर, बिखरा है चहुँ ओर.
पालीथिन काली मगर, काले दिल का जोर..
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(प्रतियोगिता से अलग)
विष्णुपद छंद
आते हैं रोटी के सपने, निकले जब घर से.
कोस रही है भूख भूख को, हर गरीब तरसे.
अधिकारीगण मौज कर रहे, चुप है वह डर से.
सड़ा हुआ यह अन्न देखकर, सजल नयन बरसे..
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डॉ बृजेश कुमार त्रिपाठी
कुण्डलिया छंद
आग जलाती पेट को चूल्हा बुझता जाय
बोरों सड़े अनाज औ भूख हुई निरुपाय
भूख हुई निरुपाय मरा आँखों का पानी
संसद पगु बनाय रार नित नूतन ठानी
व्यथित बृजेश देख नित नेता गाते फाग
लोकतंत्र के बाग़ में रोज़ लगाते आग
एफ डी आई पर नए मचते रोज़ बवाल
सत्ता और विपक्ष की क्या शतरंजी चाल
क्या शतरंजी चाल चलें नित टेढे-टेढे
करते खूब धमाल बिना सींघो के मेढ़े
संसद में गर्मागर्मी तो खूब मचाई
वोटिंग पर पर निकली आखिर एफ डी आई
हक क्या उनको जो करें कोरा वादविवाद
मन में ठाने और कुछ व्यर्थ करें फरियाद
व्यर्थ करें फरियाद बहा घडियाली आंसू
जनता देख रही है इनके नाटक धांसू
इनकी चिकनी-चुपड़ी में हम फंसते नाहक
कितना पर अफ़सोस हमी इनके गुण-ग्राहक
श्रम किसान का इस तरह वृथा गर्त में जाय
दोषी कौन? दण्ड क्या? चर्चा हो न पाय
चर्चा हो न पाय, कि हंगामा जारी है
बचा न कोई उपाय बड़ी ही लाचारी है
सबके अपने स्वार्थ हैं सबके अपने भ्रम
हैं हताश जो कर रहे थे अब तक परिश्रम
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दोहे
रखवाली ही कर रहे, हैं हम खाली पेट
बोरों सड़े अनाज का, लगे न कोई रेट ..१
आँखों में अब शर्म भी, है गूलर का फूल
मालूम है मासूम जन, सब जायेंगें भूल ...२
एफ डी आई के लिए कितनी लठ्ठम लठ्ठ
शर्म घोल कर पी रहे देश भले हो पट्ट ..३.
जिनकी करनी से सडा इतना ज्यादा अन्न
वे तो बिलकुल मस्त है होते नित संपन्न....४
जिम्मेदारी नियत हो, बर्बादी पर किन्तु
सज़ा मिले अपराध की, सुने न किन्तु परन्तु...५
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श्री पियुष द्विवेदी ‘भारत’
कुंडलिया
है जहाँ तिहाइ जन को, मिलना कठिन अनाज !
वहाँ अन्न की ये दशा, दुख देती है आज !
दुख देती है आज, अन्न की ये बर्बादी !
छत बिन मरता अन्न, अन्न के बिन आबादी !
कृषिकों के इस देश, अन्न से ये नाता है !
अन्नपूर्णा होकर, जहाँ पूजन पाता है !
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मेरी द्वितीय प्रविष्टि
पाँच दोहे
बोरी पर बोरी पड़ी, खुले गगन के बीच !
कृषक अन्न की ये दशा, देखत आँखें सींच !!१!!
सोचत कि जिस अन्न हेतु, काम किया दिन रात !
कहीं अन्न वो सड़ रहा, कहीं न रोटी भात !!२!!
खुद तो रहती बँगले में, रखवालों की जात !
अन्न सुरक्षा को नही, ढांकहु के तिन पात !!३!!
लक्ष्मी रूपा अन्न ये, तबकि पड़ा बेकार !
जबकि महंगाई करे. हरदिन एक प्रहार !!४!!
आज तिहाय जन पकड़े, अन्न हेतु निज माथ !
कुछ नहीं जो किया अभी, सभी मलेंगे हाथ !!५!!
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श्री अशोक कुमार रक्ताले
मनहरण घनाक्षरी
कोटि कोटि बोरियों में, रईसों की मोरियों में,
बह रहे अनाज को, हे प्रभु बचाइये/
बारिश में धुल रहे, बोरी में ही घुल रहे,
जन जन की आस को, हे प्रभु बचाइये/
चूहे काट चाट रहे,भ्रष्टता को पाट रहे,
लुट रहे अनाज को, हे प्रभु बचाइए/
निर्धन को डाट रहे,अपनों को बाँट रहे,
भूखे उस गरीब को,यूँ ना तरसाइए/
ढेर अनाज व्यर्थ है,इसका कोई अर्थ है,
अर्थ के सवाल पर, बलियां चढाईये/
देश अभी गरीब है,सबका ही नसीब है,
भूखे पेट लोटते की,भूख तो मिटाइये/
कैसी ये सरकार है,विदेशियों से प्यार है,
देशी भूखा सोय मरे,एफ डी आई लाएये,
बिचौलिए का नाम ले,विदेश से इनाम ले,
पेट पर गरीब के,लात ही लगाए ये/
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मेरी दूसरी प्रस्तुति सवैया छंद.
(सुंदरी सवैया (माधवी) सगन *८ + गुरु.)
सरकार बिछावत जाल बनाकर फांसत है जग दुष्ट कि नाई,
अरु खूब अनाज खरीद खरीद दिखावत है अपनी बडताई/
मजदूर गरीब सदा तरसें लगते बरमेस भिखारि कि नाई,
अरु ढेर लगाय अनाज सडावत काटत हैं कछु लोग मलाई//
मत्तगयन्द (भगण x7 + गुरु गुरु)
मंदिर न्याय का देत हिदायत मानत ये इक बात भि नाही,
कार करे सरकार यथावत छोडत ना लव लेश ढिठाई/
मुफ्त अनाज मिले बिनको जिनकी नहि होवत रोज कमाई,
भूख बिमारि लगे जिनको उन लोगन को सम जीवन दाई//
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कुंडलिया छंद
माफिया सक्रीय हुआ,अन्न को दे सड़ाय/
सरकारी समर्थन से,मदिरा लेय बनाय//
मदिरा लेय बनाय,कहो जय भारतमाता/
बेच अन्न पछताय,धरा का भाग्यविधाता/
क्या करोगे ‘अशोक’,गरीब मरा क्या जीया/
नेता हैं सब चोर, कछु गुंडे कुछ माफिया//१//
व्याकुल है नभ अरु धरा,टूटी जन की आस/
आम जन कछु पाय नहीं,पाय रहे सब खास//
पाय रहे सब खास,तंत्र जन की जय बोलो/
जब तक मिले शराब,मुफ्त में गेहूं तोलो/
छककर पियो ‘अशोक’,मथुरा भले हो गोकुल/
सडने दो सब अनाज,व्यर्थ क्यों होते व्याकुल//२//
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श्री लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला
गेंहू भरा अथाह ( दोहे)
भंडारण ना कर सके, सड़ता जहां अनाज,
सरकार नाकाम रहे, कौन करे अब नाज ।
धान से सब कोठे भरे, खाने को मुहताज,
वितरण व्यवस्था नही,सौ करोड़ पर गाज।
जोड़ जोड़ कर संपदा, भरे खूब गोदाम,
भ्रष्ट व्यवस्था से परे,लुटता मानव आम ।
नेता के गोदाम में,गेंहू भरा अथाह,
नेता सोवे चैन से, है वह बेपरवाह ।
धान के गोदाम भरे, पागल भये किसान,
ऊँचे दामो बिक रहां, सडा हुआ भी धान ।
धन संग्रह की दौड़ में, भरे धान गोदाम,
सारा गेंहू सड गया, कछु ना आया काम ।
कुछ नेता कुछ माफिया, भरलेते गोदाम,
ऊँचे भावो बेचकर, खूब बटोरे दाम ।
सहभागिता से ही हो, चले तभी अब काम,
सब मिल भण्डारण करे, लुटे न मानव आम ।
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जाग युवा अब जाग (दोहे)
बरखा अच्छी जब हुई, बोया धान किसान,
गेंहू बो कर खुश हुआ, फसल बढ़ी यह जान । ---1
सौदागर झट आगया, उस किसान के गाँव,
भर मेरे गोदाम में, ले हिसाब से भाव । --- 2
अन्न खुले में सड रहा, किसान को यह भान,
सौदागर समझा रहा, बात उचित अब मान । --- 3
कृषक ने सौदागर की, चढ़ी देख त्यौरियां,
गेंहू झट भरने लगा, भरी सभी बोरिया । ---- 4
भण्डारण की बात पर, मन में भर संताप,
सौदागर को धान दे, समझा माई-बाँप । -- --- 5
निर्धन को मिलती नहीं, चावल रोटी दाल,
नेता गुण्डे भर रहे, किसान हुए हलाल । ---- 6
करते रहे हलाल है, ठेकेदार दलाल,
मेहनत कर किसान ही, लुटता है हरहाल । ---- 7
पहले साहूकार से, ठगता रहा किसान,
अब लूटेंगे माँल में, हमको यही मलाल । ----- 8
विदेशी व्यापार यहाँ, फिर से आया तंत्र,
लुटता रहा किसान ही,यह कैसा षडयंत्र । ------ 9
गेंहू दीमक चाटते, बाहर बैठे नाग,
जिनको देखो नोचते,जाग युवा अब जाग । ----- 10
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लुटते रहे किसान (दोहे)
खेत जोतते कृषक है, खेत सेठ के पास,
बोरे भरता कृषक है, ट्रक सेठ के पास ।
गाडी भर कर धान की, गई सेठ के द्वार,
भूखे कृषक पँहुच रहे, आये दिन हरिद्वार ।
खेत लबालब धान से, हर्षे मस्त किसान,
गुंडे माफियाँ आ गए, लुटते रहे किसान ।
अन्न्दाता वह देश का, करते नजरअंदाज,
उसके श्रम से है भरे, देखो सेठ अनाज ।
समझ पायी न झोपड़ी, सौदागर की चाल,
सौदागर भर ले गए, खेतों से सब माल ।
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श्रीमती राजेश कुमारी जी
(प्रतियोगिता से बाहर)
कुण्डलिया और कुछ दोहे ,
खाने को रोटी नहीं,सोते भूखे पेट
रंक बने हैं मेमने ,शासन के आखेट
शासन के आखेट,नहीं सुध लेता कोई
जल ने की बर्बाद ,फसल जो उसने बोई
हाल हुआ बेहाल ,तके दाने दाने को
नष्ट हुए भण्डार, नहीं कुछ है खाने को
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अन्न खुले में सड़ रहा , कुटिल तंत्र मुस्काय
हाल देख भण्डार का ,मुख से निकले हाय
बोरोँ पर बोरे लदे , भीगे बाहर अन्न
संज्ञा शून्य कृषक खड़ा ,देख हो गया सन्न
काली पालीथिन ढकी , जो मिली फटे हाल
कैसा फल मेहनत का,मन में उठा सवाल
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डॉ. प्राची सिंह
चौपाई छंद (एक प्रयास )
प्रतियोगिता से पृथक
हरित क्रान्ति करती है क्रंदन , सड़े अन्न, जिसका है वंदन
जहां अन्न अपमान पाप है , भ्रष्ट तंत्र का लगा शाप है //१//
अन्न फफूंदी सड़ी अवस्था , भंडारण की बुरी व्यवस्था
कहो कौन है उत्तरदाई ? भ्रष्टाचारी ऍफ़ सी आई //२//
कितने भूखे यहाँ बिलखते , हाथ कटोरे थाम भटकते
कचरे से बीना करते हैं, रोटी को तरसा करते हैं //३//
क्यों गरीब भूखा सोता है ? अन्न देश में जब होता है
निगले उसे पेट की ज्वाला , मिले नहीं पर एक निवाला //४//
महँगाई का जाल विषैला , सुरसा सा इसका मुख फैला
नीति दोष से पूर्ण हमारी , भला मिटा क्या फिर लाचारी //५//
खून पसीना कृषक बहाता , फसल रूप में स्वर्ण उगाता
स्वर्ण व्यर्थ सड़ता गलता है , भूखा पेट पकड़ मरता है //६//
स्वर्णामृत नहि भूख मिटाए , तंत्र उसे विष मदिर बनाए
मदिर माफिया साझेदारी , करती है सरकार हमारी //७//
वितरण महँगा यह कहते हैं , बेपरवाह सुप्त रहते हैं
दस्तावेज कहें सरकारी , नीति विफल की कारगुजारी //८//
‘एफ सी आई’ अब के सुन लो , एक सुदृढ़ परिपाटी बुन लो
भंडारण की जगह बनाओ , वितरण तंत्र सुलभ करवाओ //९//
नीति सुफल अक्षरशः लाकर , अन्न गरीबों तक पहुँचाकर
सच्चा धर्म निभा सकते हो , विश्व शिखर पर छा सकते हो //१०//
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श्री अरुण कुमार निगम
प्रतियोगिता से बाहर:
दुर्मिल सवैया
मइका खलिहान बराबर हैं ,बिटिया रहती खुशहाल जहाँ
घर से निकली ससुराल चली, सब हाल हुए बदहाल वहाँ
अँखिया बरसे जियरा लरजे, इत अन्न सड़े सुधि कौन करे
जब प्रश्न किया प्रति उत्तर में, सबके सब हैं बस मौन धरे ।।
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सुश्री ज्योतिर्मयी पन्त
काव्य विधा --दोहे
१. कृषि प्रधान इस देश की ,सुनें कहानी आज
बेशक सड़े धरा हुआ, व्यर्थ न कोई काज .
२ .अन्नों के भंडार हैं ,भरे हुए भरपूर
कुपोषण और भुखमरी ,फैला है नासूर .
३ .भीगी सड़ती बोरियाँ ,कीड़े खाएँ अन्न
बाँट न मुट्ठी भर सकें , निष्ठुर हैं संपन्न .
४ .बाज़ारों की होड़ में, पिसता रहे किसान
अन्न उगाता जो यहाँ ,देता अपनी जान
५ .कूड़ा करकट बीनते ,बच्चे भूखे पेट
कर्णधार जो देश के ,कैसी उनको भेंट
६. दाने -दानें तरसते ,मिले न रोटी एक
बड़े खिलाडी लूटते ,पाँसा रिश्वत फेंक.
७ .काला बाज़ारी करें , पाने दुगुने दाम
आत्म हनन भूखे करें,खुलते नहिं गोदाम .
८ काली चादर से ढकें ,दूजों का जो भाग
मन काले कैसे छुपें ,जैसे विषधर नाग ..
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श्री कुमार गौरव अजीतेंदु
मत्तगयन्द सवैया
भारत देश जहाँ बन दानव भूख-कुपोषण आन खड़ा है।
देख चलो सब हाल वहाँ कितना टन रोज अनाज सड़ा है।
लानत है सरकार नहीं करती कुछ, न्याय कहीं जकड़ा है।
बीच पिसा जन प्राण तजे, चलता रहता नित ये रगड़ा है॥
घनाक्षरी
पड़ी क्या नजर नहीं, देवों का भी डर नहीं,
कैसी सरकार है ये, अन्न जो सड़ा रही।
भुखमरी नाच करे, साहूकारी राज करे,
सारी टोली चोरों की ये, खिचड़ी पका रही।
अन्न को जो भी सड़ाये, अन्न को तरस जाये,
दुनिया की रीत यही, सदा चली आ रही।
अन्न ऐसे न सड़ाओ, गरीबों में बँटवाओ,
सभ्यता हमारी हमें, यही तो सिखा रही॥
दोहे
1. जानें जो नहिं भूख को, भोग रहे हों राज।
उनको क्या परवाह जब, सड़-गल जाय अनाज॥
2. भारत की तस्वीर ये, चुभती शूल समान।
धरती के आशीष का, हाय! हुआ अपमान॥
3. धरती की पूजा करे, निशिदिन एक किसान।
रोता वो भी देख के, सड़ता गेंहूँ, धान॥
4. भारी सेना भूख की, रोज रही ललकार।
कैसा अपना देश है, सड़े पड़े हथियार॥
5. हँसों को भाने लगा, बगुलोंवाला वेश।
सड़ा नहीं है अन्न ये, सड़ता अपना देश॥
6. ऐसी दुर्गति अन्न की, इतना भारी पाप।
आनेवाली पीढियों, तक जायेगा श्राप॥
7. भंडारण का दोष या, वितरण में हो खोट।
सड़ जाने से अन्न के, लगी देश को चोट॥
8. पंचायत में शोर है, मंडी में सब चोर।
रोता सड़ता अन्न ये, देखे तो किस ओर॥
9. जनता के माथे पड़ी, मँहगाई की मार।
सड़ते छोड़ें अन्न को, नेताजी हरबार॥
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श्री अरुण शर्मा अनंत
(दोहे)
भीग-भीग बरसात में, सड़ता रहा अनाज,
गूंगा बना समाज है, अंधों का है राज,
देखा हर इंसान का , अलग-अलग अंदाज,
धनी रोटियां फेंकता, दींन है मोहताज,
दौलत की लालच हुई, बेंचा सर का ताज,
अब सुनता कोई नहीं, भूखों की आवाज,
कहते अनाज देवता, फिर भी यह अपमान,
सच बोलूं भगवान मैं, बदल गया इंसान,
काम न आया जीव के, सरकारी यह भोज,
पाते भूखे पेट जो, जीते वे कुछ रोज......
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श्री संदीप कुमार पटेल "दीप"
सोरठा
वंदन प्रथम गणेश, रिद्धि सिद्धि बुद्धि सुभ दें ।
वंदन शिवा महेश, सिया राम शारद वर दें ।।
दोहा
मात पिता हर्षें सदा, गुरु दें आशीर्वाद ।
ज्ञान सुधा वृष्टि करे, पूरा हो संवाद ।।
चौपाई
सुनो चित्र वर्णन सब भाई । दीप रचे हर्षित चौपाई ।1।
लापरवाह कुतंत्र घिनौना । माने सबको एक खिलौना।2।
खुलेआम चल रही दलाली। देश हो रहा वैभवशाली ।3।
बिन भंडारण अन्न सडाते। दीनों का उपहास उड़ाते ।4।
मरे गरीब भूख के मारे । मौज उड़ाते दोषी सारे ।5।
नहीं हुआ क्यूँ काम जरुरी। कहे प्रशासन है मजबूरी ।6।
नहीं हमारे पास उपाये । जानबूझ कुछ नहीं सडाये ।7।
भण्डारण गृह नहीं बनाये। राजा बस सरकार चलाये।8।
कृषक समाज करे हम्माली। चोर कर रहे हैं रखवाली।9।
किसके लिए अनाज सडाए । सड़ा अनाज पशु नहीं खाए।10।
दोहा
लोग मर रहे भूख से , अन्न सडाता देश ।
मँहगाई घटती नहीं , बढ़ता जाता क्लेश ।।
चौपाई
भण्डारण गृह आप बढाओ । ऐसी कोई जुगत लगाओ ।11।
मेहनत करके अन्न उगाया। बिना प्रयास नहीं कुछ पाया ।12।
लगा हमारा खून पसीना । आप नचाते कैट करीना ।13।
टेक्स हमारी निज संपत्ति। लुटा रहे यूँ बचे न रत्ती ।14।
आप निवेदन इतना सुनिए। दीमक जैसे नोट न गुनिए ।15।
आप जिसे कहते लाचारी। सहज शब्द है भ्रष्टाचारी।16।
अपने अवगुण आप छुपाते। नित नए नए कानून बनाते।17।
सड़े अन्न की प्रिंट रसीदें। निज घर भरने आप खरीदें।18।
अन्न सड़े घाटा नहीं कोई।अंधी प्रजा भाग्य को रोई।19।
भूल चूक सब क्षमा कराना। चित्र चरित्र जो दीप बखाना।20।
दोहा
दीप करे विनती सुनो, मिटे झूठ अभिमान
बंद नयन इंसान के, खोलो अब भगवान्
घनाक्षरी
खुले भंडार गृह में अन्न ऐसे रख कर
आप किसानों का यूँ अन्न न सडाइये
बड़ी मेहनत लगी खेत में उगाने जिसे
इसको बचाने हेतु जुगत लगाइये
आदमी या पशु पंछी अन्न बिना कौन जिए
सबके जीने के लिए इसको बचाइए
नहीं मरे भूखा कोई, आज अपने देश में
किसी भी गरीब का यूँ हक़ न छुडाइये
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श्री संजय मिश्र 'हबीब'
(प्रतियोगिता से पृथक)
खौलता है क्रोध में खूं, मन हुआ है सन्न।
भूख के अम्बर तले यूं, सड़ रहा है अन्न।
घोर यह अपराध इसका, कौन ज़िम्मेवार?
मूँद आँखें मस्त मौनी, मुल्क का सरदार।
देख कल जिसको प्रफुल्लित मन हुआ था, आज।
कीमती महि-रत्न दिल पर, आ रहा बन गाज।
प्रश्न जलते ले खड़ा है, काल मानो यक्ष।
क्यूँ न फसलों के लिए बन, पा सके कुछ कक्ष?
संपदा श्रम से बनी जो, हो रही बरबाद।
सुख नहीं परिणाम श्रम का, ला रहा अवसाद।
गर सम्हलता है नहीं क्यूँ, नष्ट करते यार।
बाँट दो उनको खड़े जो, भूख से लाचार।
कर पसारे भटकते जिस, देश के बहु लोग।
शीश पर उसके चढ़ा है, स्वार्थ का कटु रोग।
भाग आधे से अधिक ले विश्व का बाजार।
आ रहा परतंत्रता का, दैत्य ले परिवार।
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श्री अजय शर्मा
देख दुर्दशा अन्न की अश्रु बहाते खेत
कोई सुध क्यों ले भला भरे सभी के पेट
भरे सभी के पेट , लगा आत्मा पे ताला
संभव तभी कृत्य जघन्य ऐसा कर डाला
पाप सदृश्य यह कृत्य , बेईमानी है ये
ईश्वर भी पूंछे कृत्य इंसानी है ये ?
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श्री राजेश कुमार झा
ताटंक छंद
ढूंढ रहे थे जिन्हें आजतक गीता-वेद पुराणों में
आज तड़पते मुझे दिखे हैं सड़े अन्न के दानों में
थाम लकुटिया सोच रहा हूं किसे गिनूं नादानों में
या फिर जाकर आग लगा दूं अबके सब खलिहानों में
कैसे कह दूं नई सदी है झूमूं जनगण तानों में
भूख-भूख कर बिरवे सोते पथरीली मुस्कानों में
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श्री उमाशंकर मिश्र
कुछ दोहे
चढ़ती चरबी है कहीं, कहीं सूखती खाल|
हियरा उठती टीस है,देख अन्न बदहाल||
अन्न बिना भूखे रहे , जाने कितने लोग|
वो क्यों कर चिंता करें,कुर्सी रहे जो भोग||
रहा खेत खलिहान में, सोना सरिस अनाज|
गोदामों में सड़ रहा, कौन सुने आवाज||
कमी नहीं है अन्न की, मेरा देश महान|
रूप व्यवस्था का लिए, बैठे हैं शैतान ||
दृश्य देख कर रो रहा, अंदर दिल बैचेन|
अन्न उधर है भीगता, इधर भीगते नैन ||
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प्रज्ञाचक्षु श्री आलोक सीतापुरी
कुंडलिया
सरकारी गोदाम यह, बना कोढ़ में खाज,
जनता क्यों भूखे मरे, सड़ता भरा अनाज,
सड़ता भरा अनाज, बोरियों पर है काई,
महके अत्याचार, दे रही सड़न दुहाई,
कहें सुकवि आलोक मारने की तैयारी|
करने को कल्याण यही राशन सरकारी||
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श्री अविनाश बागडे
रोला
सडता हुआ अनाज और मरते हुए किसान
कहता है अविनाश यही है हिंदुस्तान!!
सड़ी व्यवस्था आज इसे अब कौन सुधारे।
कहता है अविनाश देखिये भाग हमारे .
सडा जा रहा अन्न आंकड़े दिखा रहे वो
कहता है अविनाश हमें ही सिखा रहे वो!!
होगा जो मतदान हमें फिर याद करेंगे
कहता है अविनाश गलतियाँ वही करेंगे !!!
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प्रयुक्त रंगों से तात्पर्य
नीला रंग : अस्पष्ट भाव / वर्तनी से सम्बंधित त्रुटि /बेमेल शब्द /यथास्थान यति का न होना
लाल रंग : शिल्प दोष
Tags:
चिन्हित नीले लाल में, काव्य शिल्प के दोष |
"श्याम रंग" डूबें सभी , पायें सुख संतोष ||
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उत संग्रह था अन्न का , इत एकत्रित छंद |
सदा व्यवस्थित सोच से ,मिलता है आनंद ||
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सुंदर सार्थक संकलन , रंगों में संकेत |
मानों 'अम्बर' रोपता , है छंदों का खेत ||
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धन्यवाद हे मित्रवर, रच डाले जो छंद.
भाव शिल्प मन भा गए, पाया अति आनंद..
पायें सुख संतोष सब, दूर होय जब दोष.
ध्यान और अभ्यास से, शिल्प बने निर्दोष..
क्षुधा पूर्ति हो अन्न से, स्वस्थ बनें सब लोग.
मन आनंदित छंद से, दूर रहें सब रोग..
ओ बी ओ का खेत है, भांति भांति के छंद
सबको मिलता ही रहे, छंदों का आनंद..
चित्र से काव्य प्रतियोगिता 21 की सभी रचनाओं का एक जगह संकलन देख कर प्रसन्नता हुई ,संकलन और त्रुटियों को लाल नीले में दिखाने जैसे श्रमसाध्य कार्य हेतु हार्दिक आभार आदरणीय अम्बरीश जी कुछ व्यस्तता के कारण देर से ओ बी ओ पर आना हुआ
धन्यवाद आदरणीया राजेश कुमारी जी, इस संकलन को पसंद करने हेतु हार्दिक आभार स्वीकारें |
आदरणीय अम्बर भईया, सादर अभिवादन सहित हार्दिक साधुवाद स्वीकारें इस महत्वपूर्ण संयोजन एवं बहुमूल्य संकेतों के लिए... निश्चित रूप से रचनाओं में कमियों का यह रेखांकन मंच से जुड़े मुझ जैसे अनेकों विद्यार्थियों हेतु अत्यंत लाभकारी होने वाला है... आगे छंदों पर कार्य करते समय हमें इस बात का भान होगा कि हमसे कहाँ पर चूक हुई थी, और हम निर्दोष छंद सृजन की दिशा में अग्रसर होंगे... पुनः सादर धन्यवाद.
साथ ही मंच के सभी सम्मानीय मित्रों को बड़े दिन सुअवसर पर हार्दिक शुभकामनाओं सहित...
|| जय ओ बी ओ ||
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